SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 61 अर्थः- परिपूर्ण शास्त्रज्ञान, निर्दोष आचरण, दूसरों को समझाने की प्रवृत्ति, सन्मार्ग - प्रवर्तन की विधि में महान् उद्यम, विद्वानों द्वारा प्रशंसित होना, गर्व-रहितता, लोक-मर्यादा का ज्ञान / मनुष्य की पहचान, कोमलता, निःस्पृहता और अन्य भी मुनिराजों के गुण जिनमें हैं, वह सज्जनों के गुरु 1 गुरु और शिष्य दोनों के स्वरूप को प्रकाशित करते हुए क्षत्र - चूडामणि ग्रन्थ में आचार्य वादीभसिंह सूरि लिखते हैं रत्नत्रयविशुद्धः सन् पात्रस्नेही परार्थकृत् । परिपालितधर्मो हि भवाब्धेस्तारको गुरुः ।। गुरुभक्तो भवाद्भीतो विनीतो धार्मिकः सुधीः । शान्तस्वान्तो ह्यतन्द्रालुः शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते ॥ अर्थः- रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से विशुद्ध होने वाले, पात्र - जन पर स्नेह रखने वाले, परोपकार करने वाले, धर्म का परिपालन करने वाले एवं भव-सागर से तारने वाले गुरु होते हैं। जो गुरु भक्त है, संसार-भ्रमण से भयभीत है, विनीत है, धार्मिक है, सद्बुद्धि वाला है, शान्तचित्त वाला है, आलस्य-रहित एवं शिष्ट है, वही शिष्य माना जाता है। ( द्वितीयलम्ब - 30,31) तपः कातर मनुष्य गुरु होना तो दूर, सच्चा योगी भी नहीं बन सकता, अतः गुरु बनने के पूर्व परमार्थ तपस्वी का शास्त्रोक्त स्वरूप ज्ञातव्य है । दूसरी सदी के शास्त्र 'रत्नकरण्ड' में आचार्य समन्तभद्र इसे प्रकाशित करते हैं Jain Educationa International विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ ( रत्नकरण्ड, 10 ) अर्थः- जो विषय अर्थात् इन्द्रिय-सुखों की आशा के वशीभूत नहीं हैं, धनोपार्जन के साधनों से दूर हैं, धन-संपत्ति से परे हैं एवं ज्ञान-ध्यान और तपस्या में लीन रहते हैं, वे तपस्वी प्रशंसनीय हैं। गुरु- गीता में, गुरु कैसे होते हैं? यह एक श्लोक द्वारा कहा है गुरवो निर्मलाः शान्ताः साधवो मितभाषिणः । कामक्रोधविनिर्मुक्ताः सदाचारा जितेन्द्रियाः ।। अर्थ :- गुरु-जन निर्मल, शान्त, साधु, मितभाषी, काम-क्रोध से मुक्त, सदाचारी एवं जितेन्द्रिय होते हैं । चातुर्यवान् विवेकी च ह्यध्यात्मज्ञानवाञ्छुचिः । मानसं निर्मलं यस्य गुरुत्वं तस्य शोभते ।। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229951
Book TitleGuru Shishya ka Swarup evam Ant Sambandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy