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कर्म, विकर्म और अकर्म ]
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गिरी कि फिर उस कर्म में जो सामर्थ्य पैदा होती है, वह अवर्णनीय है । चिमटी भर बारूद जेब में पड़ी रहती है, हाथ में उछलती रहती है, पर जहाँ उसमें बत्ती लगी कि शरीर के टुकड़े-टुकड़े हुए। स्वधर्माचरण का अनन्त सामर्थ्य इसी तरह गुप्त रहता है । उसमें विकर्म को जोड़िये तो फिर देखिये कि कैसे-कैसे बनावबिगाड़ होते हैं । उसके स्फोट से अहंकार, काम, क्रोध के प्राण उड़ जायेंगे व उसमें से उस परम ज्ञान की निष्पत्ति हो जायेगी ।
कर्म ज्ञान का पलीता है । एक लकड़ी का बड़ा सा टुकड़ा कहीं पड़ा है । उसे प्राप जला दीजिये । वह जगमग अंगार हो जाता है । उस लकड़ी और उस आग में कितना अन्तर है ? परन्तु उस लकड़ी की ही वह आग होती है । कर्म में विकर्म डाल देने से कर्म दिव्य दिखाई देने लगता है । माँ बच्चे की पीठ पर हाथ फेरती है । एक पीठ है, जिस पर एक हाथ यों ही इधर-उधर फिर गया । परन्तु इस एक मामूली कर्म से उन माँ-बच्चे के मन में जो भावनाएँ उठीं, उनका वर्णन कौन कर सकेगा ? यदि कोई ऐसा समीकरण बिठाने लगेगा कि इतनी लम्बीचौड़ी पीठ पर इतने वजन का एक मुलायम हाथ फिराइये, तो इससे वह श्रानंद उत्पन्न होगा, तो एक दिल्लगी ही होगी । हाथ फिराने की यह क्रिया बिलकुल क्षुद्र है परन्तु उसमें माँ का हृदय उंडेला हुआ है । वह विकर्म उंडेला हुआ है । इसी से वह अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है । तुलसीकृत रामायण में एक प्रसंग आता है । राक्षसों से लड़कर बन्दर आते हैं । वे जख्मी हो गए हैं । बदन से खून बह रहा है परन्तु प्रभु रामचन्द्र के एक बार प्रेम-पूर्वक दृष्टिपात मात्र से उन बन्दरों की वेदना काफूर हो गई । अब यदि दूसरे मनुष्य ने राम की उस समय
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आँख व दृष्टिका फोटो लेकर किसी की प्रोर उतनी आँखें फाड़कर देखा होता तो क्या उसका वैसा प्रभाव पड़ा होता ? वैसा करने का यत्न करना हास्यास्पद है ।
कर्म के साथ जब विकर्म का जोड़ मिल जाता है तो शक्ति-स्फोट होता है और उसमें से अकर्म निर्माण होता है । लकड़ी जलने पर राख हो जाती है । पहले का वह इतना बड़ा लकड़ी का टुकड़ा, अंत में चिमटी भर बेचारी राख रह जाती है उसकी । खुशी से उसे हाथ में ले लीजिये और सारे बदन पर मल लीजिये । इस तरह कर्म में विकर्म की ज्योति जला देने से अन्त में अकर्म हो. जाता है । कहाँ लकड़ी व कहाँ राख ? कः केन सम्बन्ध: । उनके गुण-धर्मों में बिल्कुल साम्य नहीं रह गया । परन्तु इसमें कोई शक नहीं है कि वह राख उस लकड़ी के लट्ठ की ही है ।
कर्म में विकर्म उंडेलने से अकर्म होता है । इसका अर्थ क्या ? इसका अर्थ यह है कि ऐसा मालूम ही नहीं होता कि कोई कर्म किया है । उस कर्म का बोझ नहीं मालूम होता । करके भी अकर्त्ता होते हैं। गीता कहती है कि मारकर
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