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कर्म सिद्धान्त
कर्म प्रधान विश्व करि राखा ।
जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ __ अर्थात् प्राणी जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है । बस यही कर्म सिद्धान्त है। इसमें न काल कुछ कर सकता है और न ईश्वर कुछ कर सकता है। कहा भी है
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृत कर्म शुभाशुभम् ।
जा भुक्त क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि । ___ अर्थ-भोगे बिना करोड़ों कल्पों में भी कर्मों का क्षय नहीं होता है। किये हुए शुभाशुभ कर्म अवश्य भोगने पड़ते हैं।
यथा धेनु सह स्लेषु, वत्सो विन्दति मातरम् । तयैवह कृतं कर्म कर्तार, मनु गच्छति ।।
[चाणक्य नीति] अर्थ-जैसे हजारों गायों के होते हुए भी गोवत्स सीधा अपनी माता के पास जाता है, उसी प्रकार संसार में कृत कर्म भी अपने कर्ता का ही अनुसरण करते हैं । अर्थात् उसी को सुख-दुःख फल देते हैं ।
स्वकर्मणा युक्त एव सर्वोह्य त्वद्यते जनः ।
सन्तया कृष्यते तेन न यथा स्वयामच्छति ॥ अर्थ-अपने कर्म से युक्त ही सभी जन उत्पन्न होते हैं। वे उस कर्म के द्वारा ऐसे खींच लिये जाते हैं, जैसा कि वे स्वयं नहीं चाहते।
उक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि कर्म सिद्धान्त के नियम अटल हैं। कर्म सिद्धान्त की उपयोगिता :
कर्म सिद्धान्त मानव जीवन में आशा एवं स्फूर्ति का संचार करता है । मानव मन को विकास के पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। जीवन में आने वाली अनेक उलझनों का सुलझाव करता है। कर्म सिद्धान्त की सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि वह मानव को आत्महीनता एवं प्रात्मदीनता के गर्त में गिरने से बचाता है। कर्म सिद्धान्त को मानने वाला व्यक्ति न ईश्वर की दया के लिए गिड़गिड़ाता है और न होनहार के लिए अकर्मण्य होकर बैठता है। वह समझता है कि जो समस्याएँ सामने सिर निकाल कर खड़ी हैं, उनसे डरने की आवश्यकता नहीं है। यह सब पूर्वकृत कर्मों का फल है और अपने पुरुषार्थ के द्वारा इनका सामना किया जा सकता है। इस आशा के साथ व्यक्ति पुरुषार्थ
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