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करण सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की प्रक्रिया ] .
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___ कर्म की यह स्थिति किसी प्रकृति या क्रिया में अधिक रस लेने, प्रवृत्ति की पुनरावृत्ति करने से होती है। जिस प्रकार किसी पौधे को बार-बार उखाड़ा जाय या हानि पहँचाई जाये तो वह सूख सा जाता है और उसमें विशेष फल देने की शक्ति नष्ट हो जाती है। अथवा जिस प्रकार बार-बार अफीम खाने से या शराब पीने से अफीम खाने या शराब पीने की आदत इतनी दृढ़तर हो जाती है कि उसका छूटना कठिन होता है भले ही मात्रा में कुछ घट-बढ़ हो जाय । अथवा इन्द्रिय सुख के आधीन हो कोई बार-बार मिथ्या आहार-बिहार करे, जिससे उसके जलंदर, भगंदर, क्षय जैसी दुसाध्य बीमारी हो जाय जो जन्म भर मिटे ही नहीं केवल उसमें कुछ उतार-चढ़ाव आ जाय । इसी प्रकार जिस क्रिया में योग अर्थात् मन-वचन-काया की प्रवृत्ति की पुनरावृत्ति की अधिकता हो एवं रस की अर्थात् राग-द्वेष आदि कषाय की अधिकता हो तो कर्म की ऐसी स्थिति का बन्ध हो जाता है कि जिसमें कुछ घट-बढ़ तो हो सके परन्तु उसका रूपांतरण व दूसरी प्रकृति रूप परिवर्तन न हो सके, उसके फल को भोगना ही पड़े।
अतः हमें किसी विषय-सुख का बार-बार भोग करने एवं अधिक रस लेने से बचना चाहिये ताकि कर्म का दृढ़तर बन्ध न हो।
नियम : निधत्त कर्म में संक्रमण व उदीरणा नहीं होती है । ३. निकाचित करण :
कर्म-बन्ध की वह दशा जिसमें कर्म इतने दृढ़तर हो जायं कि उनमें कुछ भी फेर-फार न हो सके, जिसे भोगना ही पड़े, निकाचना कहलाती है। कर्म की यह दशा निधत्तकरण से अधिक बलवान होती है । कर्म की यह स्थिति अत्यधिक गृद्धता से होती है। जिस प्रकार पौधे को खाद, रस आदि पूर्ण अनुकूलता मिलने से उसके फल में स्थित बीज का ऐसा पोषण होता है कि उसके उगने की शक्ति पूर्ण विकसित हो जाती है । अथवा किसी रोगी द्वारा बार-बार गलती दोहरायी जाय व परहेज इतना बिगाड़ दिया जाय कि रोग ऐसी स्थिति में पहुँच जाय कि उसमें कमी आवे ही नहीं। या कैंसर जैसे असाध्य रोग का हो जाने से उसके भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है, वैसे ही जिस कर्म को भोगे बिना छुटकारा न हो, वह निकाचित कर्म है । जिस प्रकार कैंसर आदि असाध्य रोग से बचने, दूर रहने में ही अपना हित है कारण कि उसका एक बार हो जाने पर फिर मिटना असम्भव है, इसी प्रकार कर्म बन्ध की ऐसी दशा से बचने या दूर रहने में ही अपना हित है-जिसे बिना भोगे छूटकारा असम्भव है। इस घातक दशा से बचना तब ही सम्भव है जब किसी प्रवृत्ति में अत्यन्त गृद्ध न हो। अत्यधिक प्रासक्त न हो।
निधत्त और निकाचित कर्म-बन्ध की ये दोनों दशाएँ असाध्य रोग के समान हैं परन्तु निधत्त से निकाचित कर्म अधिक प्रबल व दुःखद है । अतः इनसे बचने में हो निज हित है।
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