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________________ 2. दशकालिक सूत्र 365 तथा भारयुक्त, फिर भी मधुर । विषय के विशदीकरण हेतु उपयुक्त उपमा, दृष्टांत आदि अलंकारों का प्रयोग यत्र-तत्र किया गया है। उदाहरणतः भिक्षा के लिए गृहस्थों के पास जाता हुआ मुनि उन्हें कष्ट न दे, जैसे मधुकर पुष्प को या फलाहारी पक्षी उसकी टहनी को; गुरु की सेवा तथा सविनय आज्ञापालन करने वाले शिष्य का ज्ञान जलसिक्त पादप की तरह बढ़ता जाता है; दुर्विनीत स्त्री-पुरुष जग में वैसे ही दुःखग्रस्त रहते हैं जैसे दंड, शस्त्र आदि के प्रहार से जीर्ण जंगली हाथी-घोड़े। अब बारी है इस ग्रंथ में निरूपित वर्ण्य विषय पर विचार करने की। १० अध्ययनों तथा २ चूलिकाओं (परिशिष्टों) में से प्रत्येक का संक्षेप देने लगें तो भी बहुत विस्तार हो जाएगा, अत: पहले सबके शीर्षकों को विहंगम दृष्टि से देखें। वैसा करते हुए आचार की पुनरावृत्ति ध्यान खींच लेती है, क्षुद्रकाचार कथा (अ.३), महाचार कथा (अ.६), आचारप्रणिधि(अ.८)। इस आचार में अहिंसा का महत्त्व सर्वाधिक है और उसकी बात 'छह जीवनिकायों के शीर्षकवाले अ. ४ में भी आती है। तुलना कीजिए अ.८, श्लोक २-३, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, बीजयुक्त तृण तथा वृक्ष- ये सभी त्रस (थोड़ा बहुत हिल सकने वाले) जीव हैं। इनका अपने हाथों से क्षय न हो, इस विषय में सदा सजग रहते हुए, भिक्षु को अपने शरीर, वाणी तथा मन में संयत बनना चाहिए। वैसे ही विविक्त (या, परिशिष्टपर्वन् की परिपाटी के अनुसार 'विचित्रचर्या') शीर्षक वाली दूसरी व अंतिम चूलिका में भी अकेले विरक्त जीवन बिताने वाले साधु की जीवनचर्या गृहस्थ से कैसे भिन्न होनी चाहिए, यह बताते हुए एक तरह से मुनि के आचार का ही निरूपण हुआ है। इन तथ्यों की ओर अंगुलिनिर्देश करते हुए, शुब्रिग महोदय ने लिखा है कि वास्तव में केवल अ.५,७ और ९ में ही अपना-अपना स्वतंत्र वर्ण्य विषय लेकर उसका समग्रता से वर्णन किया गया है। तो क्या, बाकी अध्ययनों में सचमुच ही अंधाधुंध उत्सूत्रता है? आइए देखें चूंकि मुनि सेज्जभव ने इस ग्रंथ का नि!हण ही नवदीक्षितों हेतु किया था, अत: मुनिधर्म का महत्त्व एवं उसका स्वरूप सामान्य रूप से समझाना अ.१ में आवश्यक ही था और यही करते हुए उन्होंने रूपक अलंकार का आश्रय लिया है "धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो" इस प्रकार आरंभ करते हुए समझाया कि भविष्यत्कालीन अनागत पापकर्म से बचने (संवर) हेतु संयम तथा भूतकालीन / अर्जित कर्मों के क्षय (निर्जरा) हेतु तप - इन दोनों सहित तीसरा तत्त्व अहिंसा-ये तीनों मिलकर ही (मुनि का) उत्कृष्ट कल्याणकारी धर्म कहलाते हैं, आगे इन्हीं तीनों को धर्म रूपी दुम के तीन पुष्प भी कहा है और इसी बात को आश्रय बनाकर पांच श्लोकों वाले इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229833
Book TitleDashvaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodhara Vadhvani Shah
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size140 KB
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