SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशवैकालिक सूत्र 363 - सिद्धान्त का तलस्पर्शी ज्ञानादि पाना उसके लिए असंभव होगा। यह सोचकर उसके अनुग्रह हेतु सूरि ने द्वादशांग गणिपिटक से धर्म का सार निर्वृढ़ (निज्जूढ) किया - ऐसा निज्जुति गाथा (७) में विधान है। अपराह्न में आरंभ किए इस ग्रंथ के १० अध्ययन निबद्ध करते-करते संध्या समय (त्रिकाल) हो गया, इस कारण उसे दशवैकालिक नाम मिला- ऐसा एक मत है। दूसरे मत से १० विकालों (संध्याओं) में इसका अध्ययन संभव होने से यह सार्थक नाम उसे मिला। तीसरा मत कहता है कि दसवां अध्ययन विताल नामक जातिवृत्ति में होने से उसको दशवैतालिक नाम मिला था, जो कि प्राकृत में दसवेयालिय ही होना संभव था। इसके नामादि संबद्ध एक समस्या और भी है। वह है इसका 'सूत्रग्रंथ' कहलाना। सामान्य संस्कृत परिपाटी में तो'अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम् । अस्तो गमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ।। " और ऐसे ग्रन्थ प्रायः गद्य में निबद्ध होते हैं- क्रियापद विरहित लघुतम वाक्यों के रूप में । परन्तु इस ग्रंथ का ८०-८५ प्रतिशत पद्यात्मक है; केवल अध्ययन ४ के प्रारंभ में २३ गद्य खण्ड मिलते हैं जो अधिकतर उत्तराध्ययन सूत्र ते कुछ अंशों का अनुसरण करते हैं। (वैसे ही अध्ययन ९ में ७ और पहली चूलिका में १८ गद्यखण्ड मिलते हैं, पर गद्योक्त विषयवस्तु को ही बाद में संक्षेप से पद्म में भी दोहराया गया है- वैदिक उपनिषदों की तरह | इन तथ्यों को देखते हुए इस ग्रंथ का सूत्र कहलाना विचित्र सा लगता है। किन्तु विद्वानों का कथन है कि संभवत: विशाल अंग- साहित्य तथा पूर्वो में विस्तार से विद्यमान महावीर स्वामी के उपदेशों के यहाँ सुग्रथित संक्षिप्त रूप में उपस्थित होने से इसकी 'सूत्र' संज्ञा सार्थक है और फिर अनुयोगद्वार ५१ के अनुसार तो जैन परम्परा में सूत्र (सुत्त) श्रुत (सुय) ग्रन्थ (गंध), सिद्धान्त (सिद्धांत), शासन (सासण), आज्ञा (आण), वचन ( वयण), उपदेश ( उवएस), प्रज्ञापना (पन्नवाण) तथा आगम- ये सारे शब्द पर्यायवाची माने गए हैं। अत: दशवैकालिक नामक यह ग्रंथ सूत्र शैली में निबद्ध न होने हुए भी 'सूत्र' कहलाया। कारण वह एक चतुर्दशपूर्वघर आगमपुरुष की कृति है, अत: एक आगम है, सूत्र है। जैन आगमों में दशवैकालिक सूत्र की गिनती किस रूप या हैसियत में होती है, यह हम पहले देख चुके हैं। कुछ लोग आगमों का विभाजन अर्थगम, सूत्रागम तथा तदुभयानम् इस रूप में भी करते हैं और दशवैकालिक सूत्र को बीचवाले स्थान में गिनाते हैं या फिर आचार्य आर्यरक्षित द्वारा कृत चतुर्विध अनुयोग विभाजन की दृष्टि से इसे चरणकरणानुयोग में स्थान देते हैं, क्योंकि "चरणं मूलगुणा:. करण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229833
Book TitleDashvaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodhara Vadhvani Shah
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size140 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy