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| 15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी
307 हैं। अब ये या तो राग रूप या द्वेष रूप अतः इन दो से गुणा करने पर ११२६० भेद बने। फिर इनको मन-वचन एवं काया इन तीन योगों से गुणा किया तो ३३७८० भेद हुए। पुनः तीन करण से गुणित करने पर १०१३४० भेद बने। तीन काल से गुणा करने पर ३०४०२० भेद हुए। ये सब पंच परमेष्ठी
और आत्मसाक्षी से होते हैं अतः ६ से गुणा करने पर १८,२४,१२० प्रकार बनते हैं। वस्तुतः जैन धर्म में अपने दोष-दर्शन का सूक्ष्मतम विवेचन प्रकट हुआ है। ५६३(जीव के भेद) x १०(विराधना) x २(राग-द्वेष) x ३(योग) x ३(करण) x ३(काल) x ६(साक्षी)= १८,२४,१२० ८४ लाख जीवयोनि के पाठ में बतलाए गए पृथ्वीकायादि के सात लाख आदि भेद किस प्रकार बनते
प्रश्न
उत्तर
कुल
د
७लाख
د
७लाख
७लाख
योनि का शाब्दिक अर्थ होता है- उत्पत्ति स्थल । जीवों के उत्पत्ति स्थल को जीव योनि कहा गया। ये स्थल (योनि) भाँति-भाँति के वर्ण-गंध-रस-स्पर्श-संस्थान से युक्त होते हैं। यहाँ पृथ्वीकायादि जीवों के मूलभेदों में पाए जाने वाले वर्णादि की सर्व संभाव्यता की विवक्षा से यह कथन किया गया है। जिसे निम्न सारणी अनुसार समझा जा सकता है। जीव
मूलभभेद वर्ण गंध रस स्पर्श संस्थान पृथ्वीकाय अपकाय ३५० x ५ २ ५ ८ ५ तेउकाय ३५० x ५ २ ५ ८ ५ वायुकाय ३५० x ५ २ ५ ८ ५
७लाख साधारण वनस्पति
१० लाख प्रत्येक वनस्पति
१४ लाख बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय
२ लाख चउरिन्द्रिय १०० x ५ २ ५ ८ ५। २ लाख तिर्यंच पंचेन्द्रिय २०० x ५ २ ५ ८ ५
४ लाख मनुष्य ७००
१४ लाख
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०००
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د د د د د د د د د د
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२ लाख
د
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देवता
२००
४ लाख
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नारकी
२००
४ लाख
८४ लाख
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