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चिंतामणि पार्श्वनाथ स्तवन
श्री गुरुभ्यो नमः
॥१॥
॥२॥
श्रीचिन्तामणि स्वामि सुणो एक माहरी: रात दिवस ध्याउं देव तुमारी चाकरी जगबंधव जगभ्रात तुमे गुण आगरा आपो वंछित ठांम भर्या सुखसागरा अलख अगोचर दीसें अनंतगुण ताहरा रूपातीत स्वरूप सविस्तर भास्वरा अजर अमर अकलंक निरंजन तुमे वस्या ज्ञान दरिसण अनंत आतम गुण उलस्या नवि जाणे कोइ आदि अनंत ताहरी तुम दरीसण देखवा हुंस्य थई माहरी तेज झलामल भाण दीसे अति दीपता तुम आगल निस्तेज बीजा सवि देवता राजनगर मांहि पास जिणंद विराजतां सुरनर किन्नर राज चरणने सेवतां पूरे मनोरथ कामना जेह सेवा करें दोलत वाधे तांम दुरीत दुरे हरें पुन्य विशाल उदार चित छे जेहनु साह श्री शांतिदासे धरम कर्यु तेहQ तेह तणा कुल मांहि अतीसे सोभत नगरशेठ नथु साह घणुं तुमे दीपता प्रासाद एक कराव्यो तेणे अभिनवो जाणे स्वर्गवीमांन इहां आवी ठव्यो
॥३॥
॥४॥
॥५॥
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