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(३१)
श्री ललितप्रभ सूरिन ताम। पार्टि बइसारया गुणधाम । पदप्रतिष्ठा महोच्छव जेह । वीरो धन खरची करइ तेह ।।८।। गुस्नई पूजा करि नव अंगि । घरे पधरावइ मननइ रंग। पाट पधरावइ गोरी गाय । दान याचकाइ बहुलां थाय ।। ९ ।। गंधर्व गाय रातीजगा। जमाड्या बहु साहम्मी सगा। पदमहोत्सव कोधो गुस्तणो । वीरइ उपायो जगि जस धणो ॥१०॥ विद्याप्रभसूरीस्युं नेह । वीराने दुःख सालइ तेह । झूरइ अन्न न खाइ अंध जाणे थई बइठो निग्रंथ ॥११॥ तव श्री ललितप्रभसूरी कहइ । सदगुरुवयण वीरो सद्दहइ । तजे शोक संसारी चालि । साचो जैनधर्म संभालि ॥ १२ ।। संवत सोल ओगणच्यालीस । (१६३९) आबु संघपति तिलक जगीस । घणो द्रव्य तिहां वावर्यो । सुकृतनो इम संचो कर्यो ।।१३।। महापूजा गुरु अंगई कीध । याचकनइ वली दान ज दीध । भावि जिननी कीधी यात्रा ।
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