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________________ 122 72 छंद छप्पय कियो छंद आनंद, वृंद मनमांहि आणी सांभलतां सुखकंद, चंद जिम सीतल वाणी श्री विजयदेव गुरुराज आज तस गणधर गाजे श्री विजयप्रभसूरि नाम काम समरूप विराजे गणधर दोय प्रणमी करी, थुण्यो पास असरणसरण भावविजय वाचक भणे, जय देव जय जयकरण ॥५१॥ इतिश्री अंतरीक पार्श्वनाथ छंद सदानंद संपूर्णम् संवत् १७५० सा वर्षे मार्गसिर वदि १४ शुभवासरे लिखितोयं पं. भाग्यविजयगणिना सकलमुनिमंडलीमुख्यमुनिश्रीप्रेमविजयवाचनाय श्रीपत्तनमहानगरे || कडी : २ कडी : ६ कडी : ७ कडी : ८ कड़ी : ९ कडी : ११ अधरा शब्दोना अर्थ कडी : १ पुरिसादाणी = पुरुषोमां प्रधान, प्रसिद्ध, आप्त पुरुष, आदरणीय खांणि = भंडार धर = पृथ्वी वयरागर = हीरो, रत्नविशेष, हीरानी खाण सायक = बाण सुरमहिला देवी, बहुला धणी अवदात = वृत्तान्त, चरित्र, गुण, यश, यशस्वी वृत्तांत जिके = (तेना), जे = कडी : १२ चामीकर = सुंदर कडी : १३ कडी : १४ Jain Education International अनुसंधान-२९ + प्रवहण = वहाण झडफे = ? दंदोल कडी : १५ जीह = जीभ, अहि = साप विसराल = गुम थवुं / अदृश्य धवं " भज्जे भांगे For Private & Personal Use Only संशय / मूंझवण / तोफान / धांधल / कोलाहल www.jainelibrary.org
SR No.229435
Book TitleAntrik Parshwanath Chand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRasila Kadia
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size304 KB
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