________________
20
ज्ञाता दाता तुं खरो भवियर्णानि दुखी त्राता रे ।
दरिसन थी शाता हुइ जिनजी जगमाहि विख्याता रे ||४|| श्री० ।
प्रारथना पहिडइ नहीं दायक नहीं तुज्झ समान रे । तत्त्व विजय कहइ पामीरं प्रभु नामई नवह निधान रे ॥ ५ ॥ श्री० । । इति श्री वासुपूज्य जिन गीतं ॥ १२ ॥
१३
( धण री बिंदली मन लागो ए देशी )
साहिबजी हो विमल जिणेसर पूजिइ,
घसी घणुं केसर घोल मेरे लाल । दिन दिन दोलत पामीइ वली वली हुइ रंगरोल मे० || १ || वि० । सा० विमल वदन सोहामणुं जगजन मोहन वेलि मे० । नयन कमल मानुं ताहरइ मुझ मन अलि करइ कोलि मे० ||२|| वि०
सा० मणि माणिक्य हीरे जड्यो मस्तक मुगट सोहंत मे० । भाल तिलक दीपइ भलो सुर नर मन मोहंत मे० ||३|| वि० । सा० कुंडलकी शोभा बनी जाणुं ससि सूरय करइ सेवा मे० । रत्नजडित अंगियां भली मोहइ चित नितमेव मे० ||४|| वि० । सा० चंपक दमणो मोगरो मालती मुचकुंद फूल मे० । तत्त्व विजय प्रभु पूजतां दिइ शिव सुख अमूल मे० ||५|| वि० । । इति श्री विमल जिन गीतं | १३ |
Jain Education International
१४
( पूज्य पधारो पाटीइ ए देशी )
अनंतनाथ अरिहंतजी अवधारो एक अरदास ।
भव बंधन थी छोडवा मुझ दीजइ चरणे वास जिनजी ॥१॥ अ० ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org