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डिसेम्बर २००७
धर्म : दस लक्षणों द्वारा आविष्कृत
दस प्रकार के 'धर्मों में क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य इन गुणों का वर्णन अनेक प्राकृत ग्रन्थों में किया है । ११ इनके स्पष्टीकरणों से यह स्पष्ट होता है कि जैन दर्शन के अनुसार क्षमा, मार्दव आदि गुण बाहर से धारण नहीं किये जाते । शुद्ध आचारपद्धति के कारण ये सभी गुण अपने आप अन्तःकरण में प्रकट होते
हैं ।
जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है कि शुद्ध आत्मा संसारदशा में आवरणों से आवृत्त रहता है | चारित्र पालन के कारण जैसे-जैसे आवरण दूर हो जाते हैं वैसे-वैसे क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि लक्षणों के द्वारा आत्मा के मूल स्वभाव के प्रकटीकरण की प्रक्रिया शुरु होती है । प्रकटीकरण का यह सिद्धांत 'धर्म' शब्द से जोडना यह जैन दर्शन की उपलब्धि है । बाह्य धारणा से यह सर्वथा भिन्न है । यह दशलक्षण धर्म प्रतिनिधिक तथा सार्वकालिक भी है ।
(५) धर्म : षद्द्रव्यों में से एक
है
भारतीय दर्शनकारों ने आसपास दिखाई देने वाले विश्व की व्यवस्था द्रव्य या पदार्थों के द्वारा लगाने का प्रयास किया है । विशेषत: वैशेषिकदर्शन पदार्थों का या द्रव्यों का विचार सूक्ष्मता से करते हैं । जैन शास्त्र में द्रव्यों की संख्या छह बतलाई गयी है ( Six substances; Six categories) वे द्रव्य जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल । काल छोड़कर धर्म और अधर्म इ. पाँच अस्तिकाय द्रव्य हैं । जीव द्रव्य छोड़कर बाकी पाँच द्रव्य अजीव है । १२ ११. दसविहो समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा - खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे ।
स्थानांग १०.१६; समवायांग - १०.१; द्वादशानुप्रेक्षा गा. ७०; कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४७८ अरूवि अजीवदव्वा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तं
जहा
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१२.
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धम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा, अधम्मत्थिकाए... भगवती २५.११
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