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August-2004
इति श्रीकर्ता ब्रह्म जगत्रेश्वर चतुविध लौकीकविस्तार चतुविध वेदशास्त्रे लौकविधि चतुर्दशपुर्व वेदोमे चतुर्वेद पुर्वामै तथा द्वादशांग द्रष्टीवादचतु ध्येन चतुः जिन - लोक- व्याख्यान - चतुर्भेदलोकविस्तार चतुर्थीतिथीकलाकथनानन्तरः अथ श्रीज्ञानशक्तेश्वर श्रीमुनीचन्द्रनाथप्रकासिता लोकालोके निजपरसम्यक्त्व -- मिथ्या सासण निजनिज - ज्ञानमायाशक्तिआराधन निजनिजनाथआराधन निजनिज सिधसासणप्राप्ती पांचम सिधगतिशाशणस्थित आराध पंचमीतीथी कलाहेतु नयवाणी :
चालि:
पंचम अंग तिथी युग प्राजो चवद भवन पर सोहें आदि सगति कहो भगवती माथे धणी ते धार्यो हे । चोवीस दंडकमांहि सजांणी षट् द्रव्य नाडी भेद असुर सुर नागंद लख चोरासी पूर्यो पिंड उमेद || १ || मानवलोकमांहें धर्म साधो पंचम थांन चदंदा चोथ तिथि युग च्यारे हुया पंचम मोक्ष वहंदा । केवल माया जैन तणी जे जोगण केवल जागें शाशण मोषतणी धणीयांणी एह निरवांणी आगें ||२|| नवन धणी जे जवन आराधें शैवी सैव संभारें जैन तणो युग साहिब जैनी जैन शगत अपारे । आदम बाबो बीबी हवां छें लक्ष्मीनारायण छाजें श्रीजिनराजनि शाशणदेवी देख निगम पद गाजें ॥३॥
ब्रह्माने ब्रह्मांणी रूपें शिव पारवती सोहें करतारूप तणो छें आगम ए परसासण जोहे | श्रीजिनशाशन हे निरवांणी पारनी खलक वीधारे देखि भविजन मानव सोहि पंचम याच्छा तारे ||४||
पांचमतिथ आराधा (ध) न कीजें पांचमें अंग अपार आदि शगति निज परसासण जागवीजोगभंडार ।
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