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अनुसन्धान ३३ परिवार राज्यमान्य रहा है। वर्तमान में इन पाँचों भाईयों के वंशज भित्रभिन्न स्थानों इन्दौर, रामगंज मंडी, झालावाड़, कलकत्ता, आदि में और रतलाम-कोटा परिवार के बुद्धिसिंहजी बाफणा विद्यमान हैं । इस तीर्थ-यात्रा का ऐतिहासिक वर्णन जैसलमेर के पास स्थित अमर-सागर में बाफणा हिम्मतराजजी के मंदिर में शिलापट्ट पर अंकित है । इस शिलापट्ट की प्रशस्ति श्री पूरणचन्दजी नाहर द्वारा सम्पादित जैन लेख संग्रह, तृतीय खण्ड, जैसलमेर के लेखांक २५३० पर प्रकाशित है।
स्वनामधन्य मुंबई निवासी सेठ मोतीसा के अनुरोध पर जिनमहेन्द्रसूरिजी बम्बई पधारे और सम्भवतः भायखला दादाबाड़ी की प्रतिष्ठा भी इन्होंने की थी । सम्वत् १८९३ में शत्रुजय तीर्थ पर सेठ मोतीसा द्वारा कारित मोती-वसही टोंक की प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी । सम्वत् १९०१ पोष सुदि पूनम को रतलाम में बाबा साहब के बनवाये हुए ५२ जिनालय मन्दिर की प्रतिष्ठा भी इन्होंने करवाई थी। इस प्रतिष्ठा के समय इनके साथ ५०० यतियों का समुदाय था । सम्वत् १९१४ भाद्रपद कृष्णा ५ को मण्डोवर में आपका स्वर्गवास हुआ । जोधपुर नरेश, उदयपुर नरेश आपके परम भक्त थे । आपके द्वारा प्रतिष्ठित सैकडों मूर्तियाँ आज भी प्राप्त हैं । इनके पाट पर क्रमश: जिनमुक्तिसूरि, जिनचन्द्रसूरि और जिनधरणेन्द्रसूरि विराजमान हुए । वर्तमान में इस शाखा में कोई श्रीपूज्य नहीं है । प्रायः यति समाज भी समाप्त हो चुका है ।
मूल विज्ञप्तिपत्र इस प्रकार है :
श्रीगौतमाय नमः ॥ नम:श्रीवर्धमानाय सर्वकलनाय ॥ ॥ प्रत्यूहव्यूहप्रमथनाय श्रीसाधुगणाधीशाय नमः ॥
स्वस्तिश्रीवरवर्णिनी प्रियतमं विश्वत्रयैकाधिपं, प्रत्यूहप्रशमाय कामदमपि प्रेष्ठं परं कामदम् । प्रास्ताकं पुरुहूतपूजितपदं पार्श्वप्रभुं पावनं, प्रख्यातं प्रणिपत्य सत्यमनसा कायेन वाचापि च ॥१॥
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