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अनुसन्धान ३३
विक्रम सम्वत् १८९७ कार्तिक सुदि सप्तमी रविवार को जयशेखर मुनि ने यह विज्ञसि पत्र लिखा है ।
इसके पश्चात् राजस्थानी भाषा में श्रीसंघ की ओर से विनती लिखी गई है । इसमें लिखा है कि "आपने इस क्षेत्र को योग्य मानकर पं. नेमिचन्दजी, मनरूपजी, नगराजजी और जसराजजी को यहाँ भेजा है, उससे यहाँ जैन धर्म का बहुत उद्योत हुआ है और व्याख्यान, धर्म- ध्यान का भी लाभ प्राप्त हुआ है । पहले यहाँ पर उपाश्रय का हक और खरतरगच्छ की मर्यादा / समाचारी उठ गई थी । इनके आने से सारी समस्या हल हो गई । आपसे निवेदन है कि पाली क्षेत्र योग्य है । इनको दो-तीन वर्ष तक यहाँ रहने की इजाजत दें ताकि यह क्षेत्र सुधर जाए और बहुत से जीव धर्म को प्राप्त करें ।"
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इसके पश्चात् मारवाड़ी (मुडिया) लिपि में पाली के २८ अग्रगण्यों के हस्ताक्षर हैं । उनमें से कुछ नाम इस प्रकार है- नाबरीया भगवानदास, संतोषचन्द प्रतापचन्द, अमीचन्द साकरचन्द, गोलेछा भैरोलाल रिखबचन्द, कटारिया शेरमल उम्मेदचन्द, कटारिया जेठमल, लालचन्द हरकचन्द, संघवी रूपचन्द रिखबदास, गोलेछा सागरचन्द आलमचन्द आदि ।
विशेष : इस पत्र में चार यतिजनों के नाम आए है - पं. नेमिचन्द, मनरूप, नगराज, जसराज के नाम आए है । इन चारों के नाम दीक्षावस्था के पूर्व के नाम हैं । खरतरगच्छ दीक्षानन्दी सूची पृष्ठ १०१ के अनुसार सम्वत् १८७९ में फागुण वदी ८ को बीकानेर में श्री जिनहर्षसूरिने शेखरनन्दी स्थापित कर जयशेखर को दीक्षा दी थी। जयशेखर का पूर्व नाम जसराज था और सुमतिभक्ति मुनि के शिष्य थे और जिनचन्द्रसूरि शाखा में थे । श्री जिनमहेन्द्रसूरि
श्रीपूज्य जिनमहेन्द्रसूरि को यह विज्ञप्ति पत्र लिखा गया था अत: श्रीजिनमहेन्द्रसूरि का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
अलाय मारवाड़ निवासी सावणसुखा गोत्रीय शाह रूपजी की पत्नी सुन्दरदेवी के ये पुत्र थे । जन्म सम्वत् १८६७ था । मनरूपजी इनका जन्म नाम था । सम्वत् १८८५ वैशाख सुदी १३ नागौर में इनकी दीक्षा हुई थी
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