________________ 24 March-2002 धर्मभावना एणी[परि] भावइ, संसार ए सारो / धर्म विनां जीव मुगत्य न पावइ, ते नीसच्यइ नीरधारो // 22 // गुण०॥ बोध्य भावना कहुं बारमी, भावो सो रषिराजो / समकीत सुधुं राखो रंगिं, जिम सीझइ भवकाजो // 23 // गुण० / / दूहा० // काज सकल सीझइ सही, जे गुरु वंदइ प्राय / गुरु गुणवंतो ते कहु, परीसइ न दोहोल्यु थाय // 24 // परीसा बावीस जीपतो, परीसइ न जीत्यो तेह / ऋषभ कहइ गुरु ते भलो, सहु आराधो तेह // 25 // ढाल 14 / (13) // देसी० त्रपदीनी० // जे मुनी चात्र रंगि रमसइ, ते नर बावीस परीषह खमसइ / काल सुखि ते गमसइ, हो रख्यजी, का० // 26 / / ख्यध्या तणो परीसो ते पइहइलो, माधवसूत मन न कीउ मइलो / ढंढण मुगतिं वइहइलु, हो रख्यजी० // 27 / / त्रीषा तणो परीसो अ वीचारो, जल ऊतरतो रषि संभारो / एम आतम तुम तारो, हो रख्यजी० // 28 // सीतकालनो परीसो साचो, जीव खमत म होईश काचो / सुख लहीइ अती जाचो, हो रख्यजी० // 29|| उष्णकाल आवि म म धुजो, सोय संघाति साहामा जुझो / जो जिनवचनां बुझो, हो र० // 30 // डंस-मसा म म दूहुवो हाथि, ते परीसो खमीइ नीज जाति / पूत्र चलाची भाति, हो० // 31 // वस्त्र तणो परीसो पणी जाणो, मइला फाटां मनि म म आंणो / को म म वस्त्र वखाणो, हो रख्यजी० // 32 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org