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________________ ६० नदियों, समुद्रों का जल पी लेने पर भी उसकी प्यास नहीं बुझती। खुजली होने पर ये छुरी से स्वयं के शरीर को खुजलाते है मगर इससे उनकी खुजलाहट मिटती नहीं, बल्कि बढ़ती रहती है। इन्हें शीत-वेदना तो बर्फीले हिमालय पर्वत के शिखर से भी अनंतगुणी अधिक सहनी पड़ती है। खैर के अंगारों की उष्णता से अनंतगुणी अधिक उष्णवेदना उन्हें निरंतर सहनी पड़ती है। पहली नरकभूमि की अपेक्षा दूसरी नरकभूमि में और दूसरी की अपेक्षा तीसरी में; इसी प्रकार उत्तरोत्तर शीतवेदना या उष्णवेदना अनंत गुणी अधिक बढ़ती ही रहती है। वैक्रिय शरीर होने के कारण नारकी जीव अलग-अलग तरह के भयंकर रूप बनाकर एक-दूसरे को त्रास ही त्रास देते रहते हैं। नारकियों के अंग पारे की तरह बारबार बिखर जाने पर भी पुनः स्वतः जुड़ जाते हैं। वे साँप, बिच्छु, नेवले इत्यादि वज्रमुखी क्षुद्र जीवों का रूप बनाकर एक-दूसरे को काटते रहते हैं। कीड़ेमकोड़े इत्यादि रूपों को धारण करके एक-दूसरे के शरीर में घुस जाते हैं। पहली तीन नरक-भूमियों तक तो परमसंक्लिष्ट-परिणामी, नरकपाल, परमाधार्मिक देवता भी नारकी जीवों को उनके पाप-कृत्य याद करवाते हुए नानाविध रूप से बेहद कष्ट पहुँचाते हैं। वे उन्हें आकाश में ले जाकर सहसा नीचे की ओर फैंक देते हैं। वे नारकियों के अंग, प्रत्यंगों को छूरियों से काटते हैं: उनके छोटे छोटे टुकड़े करते हैं। वे नारकियों को रस्सियों से जकड़ जकड़ कर बाँधते हैं; लातों, घूसों से मारते रहते हैं; और भयंकर स्थानों पर ले जाकर छोड़ देते हैं। बहुत से पारमाधार्मिक देवता नारकियों की आंते, नसें, कलेजे आदि को खींच खींचकर बाहर निकालते हैं। कुछ परमाधार्मिक देवता भालों के तीखे तीखे अग्रभागों में नारकियों को पिरोते हैं। नारकियों के अंगोंपांगों को फोड़ते हैं। लोहे के हथोड़ों से उनके शरीरों को कूटते हैं। गरम-गरम तैल में समोसे की तरह तलते हैं। कोल्हू में तिलों की तरह पेलते हैं। वे अपनी वैक्रियशक्ति द्वारा खड्ग आकार के पत्रों वाले वन बनाकर बैठे हुए नारकियों पर तलवार जैसे तीखे-तीखे पते गिराते है; और उनके अंग-प्रत्यंगों को तिलों के दाने जितने छोटे-छोटे करते रहते हैं। परमाधार्मिक देव नारकी देवों को जब कुंभियों में पकाते हैं; तब तो वे जीव पाँच-पाँच सौ योजनों तक उपर उछलते हैं; छटपटाते हुए फिर वहीं आकर गिरते हैं। वे नारकी जीवों को आग जैसी तपी हुई बालु-रेती * जीवन के अंत समय में पाप नहीं मुकृतों को याद कटाभो.
SR No.229256
Book TitleChitra Vichitra Jiva Sansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaysagar
PublisherZ_Aradhana_Ganga_009725.pdf
Publication Year2012
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size199 KB
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