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चउरिंद्रिय कहलाते हैं। जैसे कि- मक्खी, मच्छर, भँवरा, टिड्डा, डांस, बिच्छु वगैरह। चउरिद्रिय जीवों को सामान्यतया छ: या आठ पाँव होते हैं।
द्वीन्द्रिय, त्रीरिन्द्रिय और चउरिंद्रिय जीवों में से कुछ जीवों को मूंछे होती है। द्वीन्द्रिय, त्रीरिन्द्रिय और चउरिंद्रिय जीव विकलेन्द्रिय कहलाते हैं।
विकलेन्द्रिय जीव ऊर्ध्व और अधोलोक में उत्पन्न नहीं होते; मात्र मध्यलोक में ही उत्पन्न होते हैं।
प्रत्येक विकलेन्द्रिय के दो-दो भेद हैं - (१) पर्याप्ता, (२) अपर्याप्ता।
जिन जीवों के पास पाँच- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियाँ हैं, वे पंचेन्द्रिय कहलाते हैं। पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के होते हैं - (१) नारक, (२) तिर्यंच, (३) मनुष्य, (४) देव।
द्वीन्द्रिय, त्रीरिन्द्रिय, चउरिंद्रिय और पंचेन्द्रिय जीव बादर ही होते हैं। स्थावर और विकलेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीवों का विकास हर रीति से विशेष यानि कि बहुत अधिक होता है।
परमात्मा ने काय की अपेक्षा से सभी संसारी जीवों को छ: वर्गों में बाँटा हैं- (१) पृथ्वीकाय (२) अप्काय (३) तैजस्काय (४) वायुकाय (५) वनस्पतिकाय (६) त्रसकाय. काय अर्थात् राशि या समूह. काय का ही पर्यायवाची शब्द है निकाय।
पृथ्वीकायिक जीवों की राशि को पृथ्वीकाय, अप्कायिक जीवों की राशि को अप्काय, तैजस्कायिक जीवों की राशि को तैजस्काय, वायुकायिक जीवों की राशि को वायुकाय, वनस्पतिकायिक जीवों की राशि को वनस्पतिकाय और त्रसकायिक जीवों की राशि को त्रसकाय कहा जाता है।
पृथ्वीरूप काया- शरीर को धारण करने वाले जीव पृथ्वीकायिक कहलाते हैं।
स्फटिक, मणि, रत्न प्रवाल आदि वस्तुएँ जब तक पृथ्वी के उदर में पाई जाती हैं, तब तक वे सचित्त- जीवनी शक्ति से युक्त कहलाती हैं; अतः उनकी गणना पृथ्वीकाय के रूप में की जाती है। मगर जब ये वस्तुएँ पृथ्वी के उदर से बाहर निकाली जाती है तो शस्त्र, अग्नि, रसायन आदि के प्रयोग से ये जीवरहित हो जाती है, तब इनकी गणना अचित-अजीव-जड़ पदार्थों में की जाती है।
जलरूप शरीर को धारण करने वाले जीव अप्कायिक कहलाते हैं। स्थूल * प्रेम को साकार होने का मन हुभा तो माँ का मर्जन हुभा.