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________________ ७४ से पूर्णतः मुक्त हो जाती है, सामान्यतः भारी वस्तु के कारण हल्की वस्तु को दब या हट जाना पड़ता है। (८) अंतराय कर्म- आत्मा अनंत शक्तिमय है, अंतराय कर्म आत्मा की शक्तियों को बाधित करता है। अंतराय कर्म के क्षय होते ही आत्मा स्वतः अपनी शक्तियों को पूर्णरूपेण प्राप्त कर लेती है। सिद्धपद को पाने के उपयोगी सूत्र एक्को गुणो महंतो, मणुयभवे जो न होइ अन्नत्तो। जं जाइ इओ मोक्खं, जीवो कम्मक्खयं काउं।। जीव 'मनुजभव में ही कर्मों का क्षय करके मोक्ष में जा सकता है, अन्य भवों में नहीं। मात्र इसी एक विशेषता के कारण मनुजभव अन्य भवों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। जह लंघणेहि खिज्जंति, रसविकारुब्भवा गरयरोगा। तह तिव्वतवेण धुवं, कम्माई सुचिक्कणाई पि।। सुदंसणाचरियं ।। जिस प्रकार देह में रसविकार के कारण उत्पन्न हुए भयंकर रोग लंघणभोजन न करने से नष्ट हो जाते हैं; उसी प्रकार निश्चित ही तीव्र 'तप' के आसेवन से चिकने-कठोरतम कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थ अज्झत्थदोसा।। सूत्रकृतांग १/६/२६ ।। क्रोध, मान, माया, चौथा लोभ; ये अध्यात्म-अंतरात्मा के दोष है। कसाया अग्गिणो वुत्तो, सुय-सील-तवो जलं।। उत्तराध्ययन २३/५३ ।। कषायों-क्रोध, मान, माया और लोभ को अग्नि एवं श्रुत, शील और तप को जल कहा गया है। कसायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीव किं जणयइ ? कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ। वीयरागभावं पडिवन्ने य णं जीवे समसुह-दुक्खे भवइ ।। उत्तराध्ययन २९/२६ ।। हे भगवंत ! कषायों के त्याग से जीव क्या प्राप्त करता है ? हे देवानुप्रिय ! कषाय के त्याग से जीव वीतरागता को प्राप्त करता है। * जो धीरज रख सकता है वह मनचाहा कार्य कर सकता है.
SR No.229256
Book TitleChitra Vichitra Jiva Sansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaysagar
PublisherZ_Aradhana_Ganga_009725.pdf
Publication Year2012
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size199 KB
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