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कायोत्सर्ग किया जाता है । ध्यानस्वरूप आभ्यंतर तप अग्नि समान है, उससे पाप क्रम जलकर भस्म हो जाते हैं । किन्तु कायोत्सर्ग उससे भी बढिया स्थिति पैदा करता है । कायोत्सर्ग सर्व प्रकार के बाह्य-आभ्यंतर तप में सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि कायोत्सर्ग से आत्मा का शरीर से संबंध छूट जाता है । ऐसी उत्कृष्ट स्थिति का निर्माण बिना कायोत्सर्ग संभव नहीं है । ___ भूतकाल में हुए पापों का मिथ्यादुष्कृत देकर उसके लिये प्रायश्चित्त | स्वरूप में कायोत्सर्ग रूप आभ्यंतर तप करने के पश्चात् वह पाप भविष्य में पुनः न हो उसके लिये प्रत्याख्यान करना आवश्यक है । अतः सबके अन्त में प्रत्याख्यान आवश्यक रखा है |
इस प्रकार छः आवश्यक का क्रम भी पूर्णतः वैज्ञानिक है और आत्मा के गुणों को उसी क्रम से प्राप्ति कराने वाला है ।
इन छ: आवश्यकों की क्रिया मन, वचन, काया की एकाग्रता त्रिकरणशुद्धि और शुद्धभावपूर्वक की जाए तो याकिनीमहत्तरासुनु भगवान श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज के कथन अनुसार वह आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़नेवाली होने से योगस्वरूप/ध्यानस्वरूप बनती है । अतः सभी श्रद्धालु श्रावकों को पूर्ण भक्ति, बहुमान व श्रद्धा से छः आवश्यकों की क्रिया करनी चाहिये । ___ अन्त में, छ: आवश्यकों के बारे में परम पवित्र गीतार्थ शास्त्रकार भगवंत के आशयविरुद्ध या जिनाज्ञाविरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छा मि दुक्कडं देकर पूर्ण करता हूँ |
संदर्भ 1. 'योगविंशिका' गाथा-1. कर्ताः याकिनीमहत्तरासुनु श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज
2. श्रीकल्पसूत्र टीका, प्रथम व्याख्यान. मूळ : श्रीभद्रबाहुस्वामीजी, टीकाकार : उपा.. श्रीविनयविजयजी
3. वही
4. तृतीय आगम स्थानांगसूत्र ममें अंगबाह्य श्रुत के आवश्यक और आवश्यकट्यतिरिक्त ऐसे दो भेद बताकर आवश्यक को गणधरकृत और आवश्यकव्यतिरिक्त को स्थविरकृत बताया है।
5. तिरि, नर. सुरसमुदाय के अचिराना नंद रे, एक योजनमाहे समाय के अचिराना नंद रे,
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