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'शान्ति पथ-प्रदर्शन' जीवनको धर्म-तत्वके नामपर किसी एकान्तिक व्याख्या की ओर नहीं खींचता है, अपितु तत्वका जीवनके साथ मेल साधने में योग देता है । पारिभाषिक भाषा का जीवनानुभव से मेल बैठाकर रचनाकार ने ग्रन्थको पन्थगत से अधिक जीवनगत बना दिया है । अन्यान्य मतवादों के साथ जैनमत के संगम को यह ग्रन्थ सुगम कर देता है ।
साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार, देहली
नय-दर्पण (१६६५) :
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सन् १६६२ में दिये गये इन्दौरके न्याय-विषयक प्रवचनों का संग्रह है, जिसमें वस्तु-स्वरूप, अनेकान्त, प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तभंगी और स्याद्वाद् जैसे अति जटिल तथा गम्भीर विषयों का अत्यन्त सरल भाषा में सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है । स्थल-स्थल पर यथावकाश सर्वानुभूत सरल दृष्टान्त दे-देकर विषय को यथा सम्भव सुगम तथा सुबोध बनाने में कोई कसर उठा नहीं रखी है । बीच-बीच में प्रसंगवश अध्यात्म रस के छीटें भी दिये गये हैं । डिमाई साइज के ७७२ पृष्ठ, सुन्दर क्लॉथ बाइण्डिंग, शीघ्र शीघ्र प्रकाशित होनेवाला है । वर्णीदर्शन (१६७४) :
पूज्य गणेश प्रसादजी वर्णी की सौवीं जन्म जयन्ती के अवसर पर 'शान्ति निकेतन प्राश्रम ईसरी' की ओर से प्रकाशित हुआ है । इस संक्षिप्त से ग्रन्थ में वर्गीजी ने पूज्य श्रीकी जीवनी को आदि लेकर उनका सकल साहित्य संजोकर रख दिया है, तथा एक भी महत्वपूर्ण बात छूटने नहीं पाई है । इतने पर भी विशेषता यह कि इसमें एक शब्द भी आपने अपनी ओर से नहीं लिखा है । सकल सामग्री पूज्य श्री के अपने शब्दों में निबद्ध है । समाप्त हो गई है । समणसुत्तं (१६७४ ) :
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श्रीमद्भगवद्गीता तथा बाइबल की भाँति सकल जैन सम्प्रदायों के द्वारा सम्मत जैन धर्मका प्रथम ग्रन्थ है । राष्ट्रीय सन्त बिनोबाजी की प्र ेरणा से