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हो चुकी थी। सन् १९७२ में बनारसवाले श्री जयकृष्णजीने आपको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करनेकी बात जब आपसे कही तो आपने उनको मना कर दिया।
आपकी इस निःस्पृहता से प्रभावित होकर भारतीय ज्ञानपीठ की समिति ने आपको अभिनन्दन-पत्र भेंट करनेका निश्चय किया, परन्तु यह कार्य कैसे किया जाय यह एक समस्या थी । इस प्रयोजन के अर्थ जब आपके पास ईसरी आमन्त्रण भेजा गया तो आपने यह उत्तर देकर बात को टाल दिया कि वाङ्ग मय की सेवा के अर्थ वे आधीरात सरके बल आने को तैयार हैं, परन्तु इस प्रयोजन के अर्थ आने के लिये क्षमा चाहते हैं । 'समणसुत्तं' विषयक संगीति में सम्मिलित होनेके लिये जब आपको देहली पाना पड़ा तब इस अवसरसे लाभ उठाकर समिति के मत्री श्री लक्ष्मीचन्दजी ने बिना आपको बताये सकल आयोजन कर लिया और समाज में निमन्त्रण पत्र भी वितरण करा दिये। सब कुछ कर लेनेके उपरान्त वे आपके पास पहुंचे और कहा कि अब हमारा मान आपके हाथ है । इसप्रकार यह अायोजन स्वीकार करलेनेके लिये आपको बाध्य होना पड़ा । पूज्य उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी और पूज्य मुनि नथमलजी के साथ विद्वानों तथा श्रावकों की विशाल सभा में दानवीर श्री साहू शान्ति प्रसादजीने बड़े प्रम तथा सम्मान के साथ आपको अभिनन्दन पत्र भेंट किया।
सम्प्रदायवाद तथा रूढ़िवाद से आप सदा दूर रहे हैं। अपनी सर्व कृतियों में आपने परमार्थ पथके इन दोनों महाशत्रुओं की कड़ी भर्त्सना की है। आपका कहना है कि तत्त्वलोकके वासीको ब्राह्मण शुद्र अथवा जैन अजैन का भेद कैसे दिखाई दे सकता है। इसी रस में मग्न उनके मुख से अनेकों बार दो शब्द सुनने को मिले हैं कि "मैं न श्वेताम्बर हूं न दिगम्बर, न जैन न अजैन और न हिन्दु न मुसलमान अथवा मैं सव कुछ हूं"। लोकेषणा-पूर्ण जनरञ्जना के सामाजिक क्षेत्र से हटकर आप पिछले कई वर्षों से ज्ञान ध्यान की भ्यन्तर साधना में रत हैं। न आपको दिखावे से कोई प्रयोजन है, और न रूढ़ियों का स्पर्श, केवल समतापूर्ण विशाल प्रेम ही आपके जीवन का आदर्श है। शिा