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________________ १८ जैनधर्म में सामाजिक चिन्तन २०. न्याय-नीति से धन उपार्जन करो। २१. शिष्ट पुरुषों के आचार की प्रशंसा करो। . २२. प्रसिद्ध देशाचार का पालन करो। २३. सदाचारी पुरुषों की संगति करो। २४. माता-पिता की सेवा-भक्ति करो। २५. रगड़े-झगड़े और बखेड़े पैदा करने वाली जगह से दूर रहो, अर्थात् चित्त में क्षोभ उत्पन्न करने वाले स्थान में न रहो। २६. आय के अनुसार व्यय करो। २७. अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार वस्त्र पहनो। २८. धर्म के साथ अर्थ-पुरुषार्थ और मोक्ष-पुरुषार्थ का इस प्रकार सेवन करो कि कोई किसी का बाधक न हो। २९. अतिथि और साधुजनों का यथायोग्य सत्कार करो। ३०. कभी दुराग्रह के वशीभूत न होओ। ३१. देश और काल के प्रतिकूल आचरण न करो। ३२. जिनके पालन-पोषण करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर हो, उनका पालन-पोषण करो। ३३. अपने प्रति किये हुए उपकार को नम्रतापूर्वक स्वीकार करो। ३४. अपने सदाचार एवं सेवा कार्य के द्वारा जनता का प्रेम सम्पादित करो। ३५. परोपकार करने में उद्यत रहो। दूसरों की सेवा करने का अवसर आने पर पीछे मत हटो। सन्दर्भ १. ऋग्वेद, १०/१९/१२. २. ईशावास्योपनिषद्, ६. ३. वही, १. ४. श्रीमद्भागवत, ७/१४/८. ५. आचारांग, १/५/५. ६. प्रश्नव्याकरणसूत्र, २/१/२. ७. वही, २/१/३. ८. समन्तभद्र, युक्त्यानुशासन, ६१. ९. स्थानांग, १०/७६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229139
Book TitleJain Dharm me Samajik Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
Publication Year1997
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size511 KB
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