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सकारात्मक अहिंसा की भूमिका
आत हैं, जब व्यक्ति अपन क्षुद्र हितां का बलिदान स्वतः नहीं करता है तो उससे बलात् भी करवाना पड़ता है। जब कोई समाज, गष्ट्र या उसका कोई सदस्य या वर्ग अपन क्षुद्र हितों की पूर्ति के लिए हिंसा अथवा अन्याय पर उतार हो जाय, तो निश्चय पूर्ण अहिंसा की दुहाई देकर तटस्थ दृष्टा बन रहने से काई काम नहीं चलगा। जब तक जैनाचार्यों द्वारा उद्घोषित सम्पूर्ण मानव समाज की एकता की कल्पना पूर्ण साकार नहीं होती है, जब तक सम्पूर्ण समाज अहिंसा पालन के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता, तब तक मानव समाज में पूर्ण अहिंसा या निरपेक्ष अहिंसा के परिपालन का दावा करना सम्भव नहीं है।
जैनधर्म जिरा पूर्ण अहिंसा के आदर्श को प्रस्तुत करता है उसमें भी जब संघ की अथवा सघ के एक सदस्य की सुरक्षा का प्रश्न आया तो जैन आचार्यों ने सापेक्षिक या सापवादिक आंहस्सा का ही स्वीकार किया। जैन साहित्य में आचार्य कालक और गणाधिपति चटक के उदाहरण इसक स्पष्ट प्रमाण हैं। निशीथार्ण । गाथा 289) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जब संघ की सुरक्षा अथवा किसी सती स्त्री के सतीत्व के रक्षण का प्रश्न हा तो गृहस्थ ही नहीं, मनि मी हिंसा का सहाग ले सकता है। ऐसी स्थिति में बाहय रूप स हिंसा की जो घटना घटित होती हैं, उसे चाहे द्रव्य हिंसा की दृष्टि से हिंसा कहा जाय, किन्तु यदि उसमें कर्ता की बल्लि में निजी ग्वार्थ और अपगधी के प्रति द्रुप भाव नहीं है, तो एसी हिंसा वस्तुतः अहिंसा ही है। जब तक मानव समाज का एक भी सदस्य पाशविक वृत्तियों में आस्था रखता हो, यह सोचना व्यर्थ है कि सामुदायिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा। जो लोग सकारात्मक अहिंसा अर्थात् रक्षण, सेवा सहकार आदि जीवन मूल्यों को केवल इस आधार पर अमान्य करते हैं कि उनसे निरपेक्ष या पूर्ण अहिंसा का पालन सम्भव नहीं है। उनकी यह अवधारणा उचित नहीं कही जा सकती है।
निशीथचूर्णि में अहिंसा के जिन अपवादों की चर्चा है उन्हें चाहे कुछ लोग साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य न करना चाहते हों किन्तु क्या यह नपुसंकता नहीं होगी कि जब किसी मनिसंघ के सामने किसी तरुणी साध्वी का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे पूर्ण अहिंसा के परिपालन की दुहाई देकर तटस्थ दृष्टा बने रहे? क्या उनका कोई सामाजिक दायित्व नहीं है ? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न निरा-वैयक्तिक नहीं है। जब तक सम्पूर्ण मानव समाज एक साथ अहिंसा की साधना के लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा पूर्ण अहिंसा का उद्घोप कोई अर्थ नहीं रखता। अधिक क्या कहें, यदि सम्पूर्ण समाज षडजीव-निकाय की नवकाटिपूर्ण अहिंसा के आदर्श के परिपालन की बात करने लगे तो क्या जनमुनि संघ का भी कोई अस्तित्व रहेगा। अतः पर्ण अहिंसा के आदर्श की दहाई देकर अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की अवहेलना कपि उचित नहीं मानी जाती। संरक्षणात्मक व सुरक्षात्मक प्रयासों में जो हिंसा की बाह्य घटनायें होती हैं वे सामाजिक जीवन के लिए अपरिहार्य है। अहिंसा में अपवाद मानने वालों को सकारात्मक अहिंसा निषेध का अधिकार नहीं
पुनः हिंसा और अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से तो आंतरिक है। बाहयरूप में हिंसा के
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