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________________ प्रकाशमान हो रही थी, तो दूसरी ओर अन्तर्-हृदय की अन्धेरी गुफा-ज्ञान-ज्योति से जगमगा रही थी। ऐसे साढ़े बारह वर्ष की दीर्घ तप:साधना, ध्यान-साधना की धारा में प्रवहमान श्रमण महावीर वैशाख शुक्ल नवमी को ऋजुवालिका के तट पर पध रे। उस समय उसका नाम ऋजुवालिका था, आज हम उसे बराकर नदी के नाम से सम्बोधित करते हैं। उसके उत्तर तट पर शाल-वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा में स्वयं में ध्यानस्थ हो जाते हैं। शाल-वृक्ष श्रमण महावीर का ज्ञान-वृक्ष है। दो दिन स्वयं स्वयं के चिन्तन में संलग्न रहे। वह अन्तर्-ज्योति विशाल होते-होते वैशाख शुक्ल दशमी को सूर्यास्त के समय अनन्त हो गई। उस अनन्त प्रकाश को, अनन्त ज्योति को हम केवलदर्शन-केवलज्ञान कहते हैं। इस प्रकार श्रमण महावीर राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-लोभ आदि विकारों से सर्वथा मुक्त हो गए, अरहन्त हो गए, वीतराग हो गए। वह ज्योति-पुरुष जिस लक्ष्य को लेकर साधना-यात्रा पर चला था, उस लक्ष्य पर पहुँच गया। वैशाख शुक्ल दशमी की संध्या बेला में जब प्रकृति का सूर्य अंधेरे में डूब रहा था, उस समय श्रमण महावीर के अन्तर् क्षितिज पर अनादि काल की रात्रि का भेदन कर उदित हो रहा था अनन्त ज्ञान का ज्योतिर्मय सूर्य। केवलज्ञान का सूर्य उदय हुआ कि समस्त अंधकार छिन्न-भिन्न हो गया। शक्रस्तव के शब्दों में-"जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं, तारयाणं, बुद्धाणं बोहियाणं..." वह जिन अर्थात् विजेता हो गया और जन-जन को विजय का मार्ग बताने लगा। स्वयं संसार-सागर को तैरकर पार कर गया और संसार को तैरने का पथ बताने लगा। स्वयं प्रबुद्ध हो गया, और भव्य प्राणियों को-जो अज्ञान की निशा में सो रहे थे, जगाने हेतु उसकी उपदेश-धारा बहने लगी। उनका प्रथम उपदेश कहाँ पर हुआ? ऋजुबालिका के तट पर। उस समय उनकी दिव्य देशना को किसी ने समझा नहीं। वहाँ की स्थिति ऐसी थी कि किसी ने बोध प्राप्त नहीं किया। यहाँ बोध प्राप्त न करने का अर्थ है – तीर्थ की स्थापना नहीं हुई। अतः धर्म तीर्थ की स्थापना हेतु श्रमण भगवान् महावीर वहाँ से तत्काल चल पड़े। सत्य का साक्षात्कार होने के बाद वाणी मौन के तटबन्ध को तोड़कर मुखर हो उठती है, भले ही सुनने वाला उसे सम्यक् रूप से समझ पाए या न समझ पाए। _180 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212410
Book TitleSanmati Tirth Ki Sthapana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf
Publication Year2009
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size740 KB
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