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________________ नौजवान हर्षोल्लास से नाचते-गाते है एवं देवी के नाम की जय-जयकार करते हैं। लगता है कि मानव के रूप में कोई दानवों का मेला लगा है। विचार-चर्चा करें और विरोध में स्वर उठाएँ तो झटपट कोई शास्त्र लाकर सामने खड़ा कर दिया जाता है। और, पण्डे-पुरोहित धर्म-ध्वंस की दुहाई देने लगते हैं। पशु ही क्यों, सामूहिक नर-बलि तक के इतिहास की ये काली घटनाएँ हमें भारतीय इतिहास में मिल जाती हैं और आज भी मासूम बच्चों के सिर काट कर देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि के रूप में अर्पित कर दिए जाते हैं। अन्ध-विश्वासों की परम्परा की कथा बड़ी लम्बी है। कहीं ग्रामीण महिलाएँ सर्वथा नग्न होकर वर्षा के लिए खेतों में हल जोतने का अभिनय करती हैं। ओर, कहीं पर पशु बलि एवं नरबलि तक इसके लिए दे दी जाती है। प्रज्ञा-हीन धर्म के चक्कर में भ्रमित होकर लोगों ने आत्मपीड़न का कष्ट भी कम नहीं उठाया है। वस्त्रहीन नग्न होकर हिमालय में रहते हैं। जेठ की भयंकर गर्मी में चारों ओर धूनी लगाते हैं। कांटे बिछाकर सोते हैं। जीवित ही मुक्ति के हेतु गंगा में कूद कर आत्म-हत्या कर लेते हैं। और, कुछ लोग तो जीवित ही भूमि में समाधि लेकर मृत्यु का वरण भी करते हैं। और, कुछ आत्म-दाह करने वाले भी कम नहीं हैं। लगता है, मनुष्य आँखों के होते हुए भी अंधा हो गया है। धर्म रक्षा के नाम पर वह कुछ भी कर सकता है या उससे कुछ भी कराया जा सकता है। धर्म और गुरुओं के नाम पर ऐसा भयंकर शहीदी झनून सवार होता है कि अपने से भिन्न धर्म-परम्परा के निरपराध लोगों की सामूहिक हत्या तक करने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। ये सब उपद्रव देव-मूढ़ता, गुरु-मूढ़ता तथा शास्त्र-मूढ़ता के कारण होते हैं। प्रज्ञा ही, उक्त मूढ़ताओं को दूर कर सकती है। किन्तु, धर्म के भ्रम में उसने अपना या समाज का भला-बुरा सोचने से इन्कार कर दिया है। अतः अपेक्षा है, प्रज्ञा की अन्तर्-ज्योति को प्रज्वलित करने की। बिना ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुए, यह भ्रम का सघन अन्धकार कथमपि दूर नहीं हो सकता। अतः अनेक भारत के प्रबुद्ध मनीषियों ने ज्ञान-ज्योति को प्रकाशित करने के लिए प्रबल प्रेरणा दी है। श्रीकृष्ण तो कहते हैं-"ज्ञान से बढ़कर विश्व में अन्य कुछ भी पवित्र नहीं है" 6 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212397
Book TitlePanna Samikkhae Dhammam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf
Publication Year2009
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size682 KB
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