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________________ लिए परस्पर लड़ पड़ते हैं, एक-दूसरे के मार्ग में काँटे बिखेरते हैं, एक-दूसरे की प्रगति का रास्ता रोकने का प्रयत्न करते हैं और परिणामस्वरूप संघर्ष, आपत्तियाँ और विग्रह खड़े हो जाते हैं। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तबाह हो जाते हैं। आप देखते हैं कि संसार में जो महायुद्ध हुए हैं, नर संहार हुए हैं, और अभी जो चल रहे हैं, वे प्राकृतिक है, या मानवीय? स्पष्ट है, प्रकृति ने उन युद्धों की आग नहीं सुलगाई है, अपितु मनुष्य ने ही वह आग लगाई है। मनुष्य की लगाई हुई आग में आज मनुष्य जाति नष्ट हो रही है, परेशान और संकटग्रस्त बन रही है। अहिंसा-करुणा का जीवन में स्थान : जैन-दर्शन कहता है, और हमारे पड़ोसी अन्य दर्शन भी कहते हैं कि जीवन में संघर्षों का मूल ढूढ़ो ! और, उसका निराकरण करो। जैसा कि हमने ऊपर विचार किया है, संघर्ष का मूल, हमें मिलता है-स्वार्थ और अहंकार में। किन्तु, मनुष्य का जीवन स्वार्थों और अहंकारों की दहकती आग पर नहीं चल सकता, बल्कि उसका विकास करुणा और अहिंसा की शीतल धरती पर ही हो सकता है। अहिंसा की एक धारा करुणा भी है, जिसे हम समझने की भाषा में स्नेह तथा प्रेम भी कह सकते हैं। उसी के आधार पर मनुष्य का पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन टिका हुआ है। जीवन में पति-पत्नी एक भूमिका पर स्थित हुए हैं, एक-दूसरे के जीवन में सहयोगी बन कर चल रहे है, सुख-दुःख को परस्पर बाँट कर चल रहे हैं। इस प्रकार सेवा, समर्पण के आधार पर उनका जीवन-चक्र जो चल रहा है, उसके मूल में क्या है ? हृदय की भावनाप्रधान रागात्मक करुणा। राग है, स्नेह है पर वह किसका परिणाम है ? आखिर अहिंसा की सामाजिक-धारा ही तो उनके अन्तर्-जीवन में बह रही है। वहीं धारा तो उन्हें एकदूसरे के दायित्वरूप भार को वहन करने में सक्षम बना रही है। माता-पत्र के जो सम्बन्ध हैं, बहन-भाई के जो बन्धन हैं, वे आखिर क्या हैं ? कोई आकस्मिक तो नहीं हैं, संयोग मात्र तो नहीं हैं ? वस्तुतः जीवन में संयोग जैसी कोई बात ही नहीं होती है, जो होता है, उसका बीज संस्काररूप में बहुत पुराना, जन्म-जन्मान्तर से चला आता है। ये जो सम्बन्ध हैं, परस्पर राग के सम्बन्ध है, स्नेह के सम्बन्ध है, किन्तु उनमें जो त्याग और बलिदान की भावना चल रही है, सहिष्णुता और समर्पण के जो बीज है, कोमलता और करुणा का जो भाव है, वह एक तात्त्विक वृत्ति है, अहिंसा की ही एक भावना है, भले ही वह राग का आधार लेकर फूटी हो, स्नेह का सहारा पाकर विकसित हुई हो, कोई अंतर नहीं। इसलिए जीवन के जो भी सम्बन्ध हैं, वे सब रागात्मक करुणा के आधार पर ही चल सकते हैं। एकदूसरे से सापेक्ष, एक-दूसरे के हितों से चिन्तित, यही तो मनुष्य का सामाजिक स्वरूप है। वैराग्य का सही मार्ग: यह जो कहा जाता है कि सब बन्धन तोड़ डालो, सब सम्बन्ध झूठे हैं, स्वार्थ के हैं, इसमें कुछ सत्य अवश्य है, किन्तु वह सत्य जीवन का निर्माणकारी अंग नहीं है। वैराग्य की यह उथली भावना जीवन को जोड़ती नहीं है, अपितु उसको टुकड़े-टुकड़े करके रख देती है। इस भावना ने संसार का लाभ उतना नहीं किया, जितना कि ह्रास किया है। वैराग्य तो चाहिए, पर कैसा वैराग्य ? यह वैराग्य नहीं कि कौन किसका है ? कोई मरे, तो हमें क्या। संसार तो जन्म-मरण का ही नाम है, हम किस-किस की फिकर करें? यह वैराग्य, मुर्दा वैराग्य है। मानव को मुर्दा वैराग्य नहीं, जीवित वैराग्य चाहिए, जीवन में विश्वास और प्रास्था पैदा करने वाला वैराग्य चाहिए। धन, संपत्ति नश्वर है, तो फिर उसका उपयोग किसी दीन-दुःखी का दर्द मिटाने के लिए किया जाए ! जीवन क्षणिक है, तो उसे किसी की सेवा के लिए अर्पण कर दिया जाए। हमारे वैराग्य में यह मोड़ आए, तब तो वह जीवनदायी है, अन्यथा नहीं। मैं तो यह कहता हूँ कि जीवन में जबतक वैराग्य विश्वकल्याण का चिरंतन पथ : सेवा-पथ ४२६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212396
Book TitleVishva Kalyan Ka Chirantan Path Seva Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size710 KB
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