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कैसी है ? प्रश्न जाति का नहीं, आत्मा का करो । आत्मा की दृष्टि से वह शुद्ध और पवित्र है या नहीं, इसी प्रश्न पर विचार करो ।
पूर्वाचार्यों ने विश्व की आत्माओं को समत्व दृष्टि देते हुए कहा है कि-संसार की समस्त आत्माओं को हम दो दृष्टियों से देखते ह एक द्रव्य दृष्टि से और दूसरी पर्याय दृष्टि से । जब हम बाहर की दृष्टि से देखते हैं, पर्याय की दृष्टि से विचार करते हैं, तो संसार की समस्त आत्माएँ अशुद्ध मालूम पड़ती हैं। चाहे वह ब्राह्मण की आत्मा हो अथवा शूद्र की आत्मा, यहाँ तक कि तीर्थंकर की ही ग्रात्मा क्यों न हो, वह जब तक संसार की भूमि पर स्थित है, शुद्ध ही प्रतीत होती है । जो बन्धन है, वह तो सबके लिए ही बन्धन है। लोहे की बेड़ी का बन्धन भी बन्धन है और सोने की बेड़ी का बन्धन भी बन्धन ही है । जब तक तीर्थकर प्रारब्ध कर्म के बन्धन से परे नहीं होते हैं, तब तक वह भी संसार की भूमिका में होते हैं, और संसार की भूमिका अशुद्ध भूमिका है। आत्मा जब विशुद्ध होती है, पर्याय की दृष्टि से भी विशुद्ध होती है, तब वह मुक्त हो जाती है, संसार की भूमिका से ऊपर उठ कर मोक्ष की भूमिका पर चली जाती है। इस प्रकार तीर्थंकर और साधारण आत्माएँ संसार की भूमिका पर पर्याय की दृष्टि से एक समान हैं। आप सोचेंगे, तो पाएंगे कि जैनधर्म ने कितनी बड़ी बात कही है। जब वह सत्य की परतें खोलने लगता है, तो किसी का कोई भेद नहीं रखता। सिर्फ सत्य को स्पष्ट करना ही उसका एकमात्र लक्ष्य रहता है ।
यदि हम द्रव्य दृष्टि से आत्मा को देखते हैं - तो द्रव्य अर्थात् मूलस्वरूप की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा शुद्ध एवं पवित्र है । जल में चाहे जितनी मिट्टी मिल गई हो, कोयले का चूरा पीस कर डाल दिया गया हो, अनेक रंग मिला दिये गए हों, जल कितना ही अशुद्ध, पवित्र और गन्दा क्यों न प्रतीत होता हो, पर यदि आपकी दृष्टि में सत्य को समझने की शक्ति है, तो आप समझेंगे कि जल अपने आप में क्या चीज है ? जल स्वभावतः पवित्र है या मलिन ? वह मलिनता और गन्दगी जल की है या मिट्टी आदि की ? यदि आप इस विश्लेषण पर गौर करेंगे तो यह समझ लेंगे कि जल जल है, गन्दगी गन्दगी है, दोनों भिन्नभिन्न पदार्थ हैं, एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए भी, अभिन्न सम्पर्क में रहते हुए भी, दोनों अलग-अलग हैं। इसी प्रकार प्रनन्त अनन्त काल से आत्मा के साथ कर्म का सम्पर्क चला आ रहा है, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध जुड़ा या रहा है, पर वास्तव में आत्मा आत्मा है, वह कर्म नहीं है। जड़ कर्म अपनी उसी जड़ धुरी पर आज भी है, उसी स्थिति में है, वह कभी चित्स्वरूप आत्मा नहीं बन सका है और न बन सकेगा। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मूल स्वरूप की दृष्टि से विश्व की प्रत्येक आत्मा पवित्र है, शुद्ध है। वह जल के समान है, उसमें जो अपवित्रता दिखाई पड़ रही है, वह उसकी स्वयं की नहीं, अपितु कर्म के ही कारण है--असत् कर्म, असत् श्राचरण और असत् संकल्पों के कारण है ।
आत्मा : परम पवित्र है :
यह बात जब हम समझ रहे हैं कि आत्मा की अपवित्रता मूल आत्मा की दृष्टि से नहीं, बाह्य कर्म के कारण है, तब हमें यह भी सोचना होगा कि वह अपवित्र क्यों होती है और फिर पवित्र कैसे बनती है
हमारे मन में जो सत् संकल्प की लहर उठ रही है, दुविचार जन्म ले रहे हैं, घृणा, वैर और विद्वेष की भावनाएँ जग रही हैं, वे हमें असत् कर्म की ओर प्रवृत्त करती हैं । अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति के लिए मनुष्य संघर्ष करता है, इधर-उधर घृणा फैलाता है। इस प्रकार स्वार्थ जब टकराते हैं, तब विग्रह और युद्ध जन्म लेते हैं । वासना और व्यक्तिगत भोगेच्छा जब प्रबल होती है, तो वह हिंसा और अन्य बुराइयों को पैदा करती है। आज के जीवन में हिंसा और पापाचार की जो इतनी वृद्धि हो रही है, वह मनुष्य की लिप्सा और कामनाओं के कारण
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