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________________ उसको निकालने के लिए क्रोध पर ही क्रोध करो। क्रोध के अतिरिक्त और किसी पर क्रोध मत करो।" . इस प्रकार जब क्रोध मन से निकल जाएगा, तो जीवन में स्नेह की धाराएँ स्वत: प्रवाहित होने लगेंगी। हृदय शान्त और स्वच्छ हो जाएगा और बुद्धि निर्मल हो जाएगी। शान्त मस्तिष्क ही निर्णय करने में समर्थ : जब हम शान्त भाव में रहते हैं और हमारा मस्तिष्क शान्त सरोवर के सदृश होता है, तभी हममें सही निर्णय करने का सामर्थ्य आता है। उसी समय हम ठीक विचार कर सकते है और दूसरों को भी ठीक बात समझा सकते है। आपको क्रोध आ गया, गुस्सा चढ़ गया, तो आपने अपनी बुद्धि की हत्या कर दी और जब बुद्धि का ही ढेर हो गया, तो निर्णय कौन करेगा? क्रोधी का निर्णय सही नहीं होगा। और कभी-कभी तो वह जीवन में बड़ा ही भयंकर साबित होता है। क्रोध के क्षणों में लिया गया निर्णय कभी भी शान्ति-दायक नहीं हो सकता। यदि हम अपने जीवन को शान्तिपूर्वक बिताना चाहते हैं, तो वह क्रोध से शान्तिपूर्ण कभी नहीं बन सकता। क्रोध के शमन का मार्ग: प्रश्न हो सकता है कि क्रोध से किस प्रकार बचा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि जब घर में आग लगती है, तो उसे बुझाने के लिए जिस प्रकार पानी का प्रबन्ध किया जाता है, उसी प्रकार जब क्रोध आए तो उसे क्षमा एवं सहनशीलता के जल से बुझा दें। जब तक प्रतिपक्ष रूप विरोधी चीजें नहीं पाएंगी, तब तक कुछ नहीं होगा। क्रोध को क्रोध से और अभिमान को अभिमान से कभी भी नहीं जीता जा सकता। गरम लोहे को गरम लोहे से काटना कभी संभव नहीं। उसे काटने के लिए ठंडे लोहे का ही प्रयोग करना पड़ेगा। जब ठंडा लोहा गरम हो जाता है, तो उसकी अपने आपको बचाने की कड़क कम हो जाती है। वह ठंडा होने पर अधिक देर तक टिक सकता है, किन्तु गरम होकर तो वह अपनी शक्ति ही गँवा देता है। वह उंडे लोहे से कटना शुरू हो जाता है। तो इस रूप में मालूम हुआ कि गरम लोहे को गरम लोहे से नहीं काट सकते, उसको ठंडे लोहे से ही काटना संभव होगा। भगवान् महावीर ने कहा कि-"क्रोध प्रेम की हत्या कर डालता है। इसका मतलब यह हुआ कि जो चीजें प्रेम के सहारे टिकने वाली है, क्रोध उन सबका नाश कर डालता है। इस रूप में विचार कीजिए तो मालूम होगा कि परिवार, समाज और गुरु-शिष्य आदि का सम्बन्ध स्नेह के आधार पर ही टिका हुआ है। अगर वहाँ क्रोध उत्पन्न हो जाए, तो फिर कोई भी प्रेम-सम्बन्ध टिकने वाला नहीं. यह अनभवगम्य सत्य है। जहाँ क्रोध की ज्वालाएँ उठती है, वहाँ भाई-भाई का, पति-पत्नी का, पिता-पुत्र का और सास-बहू का प्रेम सम्बन्ध भी टूट जाता है। और, तब परिवार में रहता हुआ भी इन्सान अकेला रह जाता है। देश में करोड़ों लोगों के साथ रहता हुआ भी वह अभागा अकेला ही भटकता है । लक्ष्मी का निवास स्थान : अतः यह विचार स्पष्ट है कि जीवन का आदर्श है प्रेम । भारतीय साहित्य में जिक्र प्राता है कि एकबार इन्द्र कहीं जा रहे थे। उन्हें लक्ष्मी रास्ते में बैठी दिखलाई दी। इन्द्र ने लक्ष्मी से पूछा-आजकल आप कहाँ विराजती हैं ? लक्ष्मी ने कहा-अाजकल का प्रश्न क्यों ? मैं तो जहाँ रहती हूँ, वहीं सदा रहती हूँ। मैं ऐसी भगोड़ी नहीं कि कभी कहीं और कभी कहीं रहूँ! और, हमेशा रहने की अपनी तो एक ही जगह है "इन्द्र मैं वहाँ रहती है, जहाँ प्रेम का अखण्ड राज्य है, जिस परिवार, समाज एवं राष्ट्र में आपस में कलह नहीं है। मैं उन लोगों के पास रहती हैं, जो परस्पर प्रेम-पूर्वक मिल-जुलकर 4. 'कोहो पीइं पणासेइ ।'-दशवकालिक, ८/३८ ३५२ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212387
Book TitleAntaryatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size630 KB
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