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________________ ओर ले जाते हैं, और मनुष्य की जिंदगी को नरक में डाल देते हैं। दूसरी ओर, आत्मा में, जो देवी संस्कार हैं, वही भीतर के देवता हैं। वे हमारी जिंदगी को अच्छाइयों की ओर ले जाते है और स्वर्ग तथा मोक्ष का द्वार उन्मुक्त करते हैं। देवासुर का अनन्त संघर्ष : अन्दर के राक्षस और देवता परस्पर संघर्ष किया करते हैं, उनमें निरन्तर महाभारत छिड़ा रहता है। महाभारत तो एक वार हुआ था और कुछ काल तक रह कर खत्म भी हो गया, किन्तु हमारे अन्दर का महाभारत अनादिकाल से चल रहा है। उसकी कहीं आदि नहीं है और अन्त कब, और कैसे होगा, नहीं कहा जा सकता। इस महाभारत में भी कौरब और पाण्डव लड़ रहे हैं। हमारे अन्दर की बुराइयाँ कौरव हैं और अच्छाइयाँ पाण्डव हैं। इन दोनों के युद्ध का स्थल--कुरुक्षेत्र, हमारा स्वयं का हृदय है। कौरव-पांडव और विजय केन्द्र : अब तक मानव-जीवन का इतिहास ऐसा रहा है कि हजार वार कौरव जीते, परन्तु अन्त में पाण्डवों की ही विजय हुई। पाण्डव जुआ खेलने में भी हारे और प्रारम्भिक युद्ध में भी हारे, किन्तु आखिरी युद्ध में वही जीते। और इधर अनन्तकाल से जो लड़ाई लड़ी जा रही है, उसमें क्रोध ने शान्ति पर विजय प्राप्त की, लोभ ने सन्तोष का गला घोंट दिया । अहंकार ने नम्रता को निष्प्राण कर दिया । स्पष्ट है, विकृतियाँ ही कौरव है, और वे अच्छाइयों को पराजित करते रहे हैं। कौरव-पाण्डवों की अन्तिम लड़ाई कृष्ण के निर्देशन में लड़ी गई। कृष्ण पथ-प्रदर्शक बने और अर्जुन योद्धा बने । इस लड़ाई के सम्बन्ध में व्यास को यहाँ तक कहना पड़ा ___'जहाँ योगेश्वर कृष्ण युद्ध का नेतृत्व करेंगे, अर्जुन अपना धनुष उठाकर लड़ेंगे, वहाँ विजय के अतिरिक्त, और क्या हो सकता है ? वहाँ विजय है, अभ्युदय है और जीवन की ऊँचाई है। यह मेरा निश्चित मत है। हमारा हृदयस्थल : अर्जुन और कृष्ण का समन्वय : वास्तव में यह मत गलत नहीं है कि महाभारत में जैसे कृष्ण और अर्जुन थे, वैसे ही हमारे हृदय में भी कृष्ण और अर्जुन विराजमान हैं। कृष्ण ज्ञानयोग के प्रतीक है और अर्जुन कर्मयोग के प्रतीक । कर्मयोग अकेला सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। वह तो अंधे की तरह टकराएगा । उसको नेतृत्व मिलना चाहिए, एक समर्थ पथप्रदर्शक चाहिए। वह पथप्रदर्शक ज्ञान के अतिरिक्त और कौन हो सकता है ? ज्ञान जब कर्म का पथप्रदर्शन करता है, तो दोनों का समन्वय हो जाता है। यही कृष्ण और अर्जुन का समन्वय है। इस समन्वय के साथ जब जीवन का महाभारत लड़ा जाता है, तो उसमें विजय होना ध्रुव है, और वासना-रूपी कौरवों का पतन निश्चित है। क्रोध और मान : _ हमारे भीतर बहुत बड़ी-बड़ी बुराइयाँ घुसी हुई है, उनमें क्रोध और मान की गिनती पहले होती है। भगवान् महावीर ने भी कषायों में क्रोध और मान का नाम पहले लिया है । चार कषाय, जो जन्म-मरण का नाटक रचते रहते हैं और जन्म-जन्मान्तर से दुःख देते आ रहे हैं, इनमें क्रोध पहला और मान दूसरा है। १. यत्र योगेश्वरः कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धरः । • तन्न श्रीविजयो भूति वा नीतिमतिर्मम ।। श्रीमद् भगवद् गीता, १८८७ ३५० पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212387
Book TitleAntaryatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size630 KB
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