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________________ का विराट रूप परिलक्षित होता है। जिस प्रकार इस लोक का हमारा आदर्श है उसी प्रकार परलोक के लिए भी होना चाहिए। वैदिक या अन्य संस्कृतियों में, मरने के पश्चात् पिण्डदान की प्रक्रिया है। इसका रूप जो भी कुछ हो, किन्तु भावना व आदर्श' इसमें भी बड़े ऊँचे हैं। जिस प्रकार वर्तमान में अपने सामाजिक सहयोगियों के प्रति अर्पण की भावना रहती है, उसी प्रकार, अपने पूर्वजों के प्रति एक श्रद्धा एवं समर्पण की भावना इसमें सन्निहित है। जैन-धर्म व संस्कृति इसके धार्मिक स्वरूप में विश्वास नहीं रखती। उसका कहना है कि तुम पिण्डदान या श्राद्ध करके उन मृतात्माओं तक अपना श्राद्ध नहीं पहुँचा सकते, और न इससे पर्व मनाने की ही सार्थकता सिद्ध होती है। पर्व की सार्थकता तो इसमें है कि जीवन के दोनों ओर-छोर पर उल्लास और प्रानन्द की उछाल आती रहे। पूर्वजों की स्मृति रखना, और उनका सम्मान करना, यही सच्चा श्राद्ध है। इस भावना को लेकर कि परलोक के लिए भी हमें जो कुछ करना है, वह इसी लोक में कर लिया जाए। हमारी जैन संस्कृति में अनेक पर्व चलते हैं। पर्युषण-पर्व भी इसी भावना से सम्बद्ध है। इन पर्वो की परम्परा लोकोत्तर पर्व के नाम से चली आती है। इनका आदर्श विराट् होता है। वे लोक-परलोक दोनों को प्रानन्दित करने वाले होते हैं। उनका संदेश होता है कि तुम सिर्फ इस जीवन के भोग विलास व आनन्द में मस्त होकर अपने को भूलो नहीं, तुम्हारी दृष्टि व्यापक होनी चाहिए, आगे के लिए भी जो कुछ करना है, वह भी यही करलो। तुम्हारे दो हाथ है, एक हाथ में इहलोक के आनन्द है, तो दूसरे हाथ में परलोक के प्रानन्द रहने चाहिए। ऐसा न हो कि यहाँ पर सिर्फ मौज-मजा के त्योहार मनाते यों ही चले जाओ और आगे फाकाकशी करनी पड़े । अपने पास जो शक्ति है, सामर्थ्य है, उसका उपयोग इस ढंग से करो कि इस जीवन के प्रानन्द के साथ परलोक का आनन्द भी नष्ट न हो, उसकी भी व्यवस्था तुम्हारे हाथ में रह सके। जैन पर्वो का यही अन्तरंग है कि वे आदमी को वर्तमान में भटकने नहीं देते, मस्ती में भी उसे होश में रखते है और बेचैनी में भी। समय-समय पर उसके लक्ष्य को, जो कभी प्रमाद की प्राधियों से धूमिल हो जाता है, स्पष्ट करते रहते हैं। उसको दिङ्मुढ़ होने से बचाते रहते ह और प्रकाश की किरण बिखेर कर अन्धकाराछन्न जीवन को पालोकित करते रहते हैं। नया साम्राज्य: बौद्ध-साहित्य में एक कथानक आता है कि भारत में एक ऐसा सम्राट था, जिसके राज्य की सीमाओं पर भयंकर जंगल थे; जहाँ पर हिंस्र वन्य पशुओं की चीत्कारों और दहाड़ों से आस-पास के क्षेत्र आतंकित रहते थे। वहाँ एक विचित्र प्रथा यह थी कि राजाओं के शासन की अवधि पाँच वर्ष की होती थी। शासनावधि की समाप्ति पर बड़े धम-धाम और समारोह के साथ उस राजा को और उसकी रानी को राज्य की सीमा पर स्थित उस भयंकर जंगल में छोड़ दिया जाता था, जहाँ जाने पर बस मौत ही स्वागत में खड़ी रहती थी। इसी परम्परा में एकबार एक राजा को जब गद्दी मिली, तो खूब जय-जयकार मनाए गए, बड़ी धूमधाम से उसका उत्सव हुआ। किन्तु राजा प्रतिदिन महल के कंगूरों पर से उस जंगल को देखता और पाँच वर्ष की अवधि के समाप्त होते ही आने वाली उस दुःस्थिति को सोच-सोचकर काँप उठता। राजा का खाया-पीया जलकर भस्म हो जाता और वह सूख-सूख कर काँटा होने लगा। एक दिन एक प्रबद्ध दार्शनिक राजा के पास पाया और राजा की इस गम्भीर व्यथा का कारण पूछा। जब राजा ने दार्शनिक से अपनी पीड़ा का भेद खोला--कि पाँच वर्ष बाद मुझे और मेरी रानी को उस सामने के भयंकर जंगल में जंगली जानवरों का भक्ष्य बन जाना पड़ेगा, बस यही चिंता मुझे खाए जा रही है। , दार्शनिक ने राजा से पूछा---पाँच वर्ष तक तो तेरा अखण्ड साम्राज्य है न? तू जैसा चाहे वैसा कर तो सकता है न? पन्ना समिक्खए धम्म www.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.212385
Book TitleManav Sanskruti Me Vrato Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size747 KB
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