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________________ खाने के बाद भी प्राधी जूठन छोड़ कर उठते हैं, और दूसरी ओर एक इन्सान जुठी पत्तले चाट कर भी पेट नहीं भर पाता है-यह विषमता जब तक मिट नहीं जाती, तब तक योग और क्षेम की साधना कहाँ हो सकती है ? भूखा आदमी हर कोई पाप कर सकता है, पंचतंत्रकार ने कहा है "बुभुग्मितः किं न करोति पापम् ?" भूखा प्रादमी कौन-सा पाप नहीं कर सकता है ? भूखा आदमी विद्रोही होता है। अपने विद्रोह की ज्वाला में वह समाज को जलाकर भस्म कर डालना चाहता है। अतः जिनके पास धन है, रोटी है, वे अपने योग का सही उपयोग करना सीखें, योग से क्षेम की ओर बढ़ने की चेष्टा करें। - मान लीजिए, किसी के पास लाख रुपये है और वह अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उसका उपयोग करता है, अपनी वासना और अहंकार की आग में उसको झोंक देता है। इस प्रकार धन तो खर्च होगा, उसका उपयोग भी होगा, लेकिन वह उपयोग सदुपयोग नहीं है। उक्त स्थिति में बाह्य दृष्टि से धन के प्रति लोभ की कुछ मंदता तो जरूर हुई, किन्तु उसी के साथ-साथ अहंकार एवं दुर्वासनाओं ने उसे आक्रांत भी कर दिया है। यह तो वैसी ही बात हई कि घर से बिल्ली को तो निकाला,परन्तु ऊँट घस पाया। इसके विपरीत लाभकषाय की मंदता से जो उदारता आई, उसके फलस्वरूप किसी असहाय की सहायता करने की स्वस्थ भावना जगे, तो वह श्रेष्ठ है। साथ ही जिस पीड़ित व्यक्ति को धन दिया जाता है, उसकी आत्मा को भी शान्ति मिलती है। उसके मन में जो विद्रोह की भावना सुलग रही है, दुर्विकल्पों का जो दावानल जल रहा है, उसका भी शमन होता है। हर हालत में भूख का समाधान आवश्यक है। एक सन्त से किसी ने पूछा कि आप भोजन क्यों करते हैं? क्या आप भी भूख के दास हैं ? उत्तर में गुरु ने कहा-भूख कुतिया है, जब वह लगती है, तो भूकना शुरू कर देती है, परिणामस्वरूप इधर-उधर के अनेक विकल्प जमा हो जाते हैं और भजन-ध्यान आदि में बाधा पाने लगती है। इसीलिए उसके आगे रोटी के कुछ टुकड़े डाल देने चाहिएँ, ताकि भजन-स्वाध्याय में कोई विघ्न उपस्थित न हो। भूख का शमन करना साधना-पथ के यात्री सन्त-जनों के लिए भी आवश्यक हो जाता है। धन को तीन अवस्थाएँ : हाँ, तो दुर्विकल्पों की सृष्टि भूख से होती है। जो दाता अपने धन से दूसरों की क्षुधातृप्ति करता है, वह अपनी लोभ-कषाय की मन्दता के साथ दूसरों की आत्मा को भी शान्ति पहुँचाता है। जो धन अपने और दूसरों के सदुपयोग में नहीं आता, उसका उपयोग फिर तीसरी स्थिति में होता है। धन की तीन गतियाँ मानी गई है-- "दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति, न भुंक्ते, तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥" पहली गति है दान । जिसके पास जो है, वह समय पर उसका दान करे, जन-कल्याण में लगाएँ । यह आदर्श है। दूसरी गति है-भोग ! जिसके पास धन है वह स्वयं नीतिपूर्वक उसका उपभोग करके प्रानन्द उठाए। किन्तु जिसके पास ये दोनों ही नहीं हैं, न तो अपने धन का दान करता है, और न ही उपभोग । उसके लिए फिर तीसरा मार्ग खुला है--विनाश का। जो अपने श्रम और अर्थ का दीन-दुःखी की सेवा के लिए प्रयोग नहीं करके संसार की योग और क्षेम १६१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212370
Book TitleYog Aur Kshem
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size620 KB
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