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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थजाता है। रोगी रोग का कारण स्वयं को नहीं मानता और न अधिकांश चिकित्सक उपचार में रोगी की सजगता और पूर्ण भागीदारी की आवश्यकता ही समझते हैं। विभिन्न चिकित्सापद्धतियों की प्रभावशीलता के भ्रामक विज्ञापन एवं डाक्टरों के पास रोगियों की बढ़ने वाली भीड़ के आधार पर रोगी उपचार हेतु चिकित्सक को आत्मसमर्पण कर देता है। डाक्टर पर उसका इतना अधिक विश्वास हो गया है कि रोग का सही कारण अथवा निदान मालूम किए बिना उपचार प्रारंभ करवा शीघ्रातिशीघ्र राहत पाना चाहता है। रोगी चिकित्सक के द्वारा बताए पथ्य एवं परहेज और मार्गदर्शन का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन भी करता है, परंतु शरीर, मन और आत्मा पर उपचार से पड़ने वाले सूक्ष्मतम परिवर्तनों की तरफ पूर्ण रूप से उपेक्षित रहने के कारण उपचार के बावजूद स्वस्थ नहीं हो पाता और कभी-कभी तो दवा उसके जीवन का आवश्यक अंग बन जाती है।
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आधुनिक सन्दर्भ में धर्मक्रूरता, तनाव, अशान्ति तो नहीं बढ़ रही है? आलस्य एवं थकान की स्थिति तो नहीं बन रही है? दर्द कब, कहाँ और कितना होता है ? मन में संकल्प विकल्प कैसे आ रहे हैं, इत्यादि सारे रोग के लक्षण हैं। जिनकी सूक्ष्मतम जानकारी रोगी की सजगता से ही प्राप्त हो सकती है तथा इन सभी लक्षणों में जितना - जितना सुधार और संतुलन होगा उतना ही उपचार स्थायी और प्रभावशाली होता है। मात्र रोग के बाह्य लक्षणों के दूर होने अथवा पीड़ा और कमजोरी से राहत पाकर अपने आपको स्वस्थ मानने वालों को पूर्ण उपचार न होने से नए-नए रोगों के लक्षण प्रकट होने की संभावना बनी रहती है।
रोग के विभिन्न प्रभाव एवं लक्षण
रोग स्वयं की गलतियों से उत्पन्न होता है, अतः उपचार में स्वयं की सजगता और सम्यक् पुरुषार्थ आवश्यक है। जब तक रोगी रोग के कारणों से नहीं बचेगा, उसकी गंभीरता को नहीं स्वीकारेगा, तब तक पूर्ण स्वस्थ कैसे हो सकेगा? रोग प्रकट होने से पूर्व अनेकों बार अलग-अलग ढंग से चेतावनी देता है । परंतु रोगी उस तरफ ध्यान ही नहीं देता । इसी कारण उपचार एवं परहेज के बावजूद चिकित्सा लंबी, अस्थाई, दुष्प्रभावों वाली हो तो भी आश्चर्य नहीं? अतः रोग होने की स्थिति में रोगी को स्वयं से पूछना चाहिए कि उसको रोग क्यों हुआ? रोग कैसे हुआ और कब ध्यान में आया? रोग से उसकी विभिन्न शारीरिक प्रक्रियाओं तथा स्वभाव में क्या परिवर्तन हो रहे हैं? इस बात की जितनी सूक्ष्म जानकारी रोगी को हो सकती है, उतनी अन्य को नहीं? उसके मल के रंग, बनावट एवं गंध में तो परिवर्तन नहीं हुआ? कब्ज अथवा दस्त या गैस की शिकायत तो नहीं हो रही है ? पेशाब की मात्रा एवं रंग और स्वाद में तो बदलाव नहीं हुआ? भूख में परिवर्तन, प्यास ज्यादा या कम लगना, अनिद्रा या निन्द्रा और आलस्य ज्यादा आना, पाँच इंद्रियों के विषयों तथा रंग, रूप, स्वाद, स्पर्श एवं श्रवण, वाणी एवं दृष्टि की क्षमताओं में तो कमी नहीं आई? श्वसन में कोई अवरोध तो नहीं हो रहा है? स्वभाव में चिड़चिड़ापन, निराशा, क्रोध, भय, अधीरता, घृणा,
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रोगी ही जान सकता है कि उसका कौन सा अंग कब सर्वाधिक सक्रिय रहता है? अतः जब तक रोगी सजग नहीं होगा, रोग एवं उपचार से पड़ने वाले अच्छे अथवा बुरे परिणामों से परिचित नहीं होगा। तब तक वह हानिकारक प्रभावों से कैसे बचेगा? अतः उपचार में रोगी की सजगता परमावश्यक है। नेता को हटाने के लिए जिस प्रकार उसके सहयोगियों को अलग करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार मुख्य रोग से छुटकारा पाने के लिए अप्रत्यक्ष रोगों की उपेक्षा से स्थायी समाधान कठिन होगा।
स्वास्थ्य के प्रति सरकारी उपेक्षा -
है।
आज हमारे स्वास्थ्य पर चारों तरफ से आक्रमण हो रहा स्वास्थ्य मंत्रालय की नीतियों में स्वास्थ्य गौण है । भ्रामक विज्ञापनों तथा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक प्रदूषण, पर्यावरण, दुर्व्यवसनों एवं दुष्प्रवृत्तियों पर प्रभावशाली कानूनी प्रतिबंध नहीं है। उल्टी वे सरकारी संरक्षण में पनप रही हैं। आज राष्ट्रीयता, नैतिकता व स्वास्थ्य के प्रति सजगता थोथे नारों और अंधानुकरण तक सीमित हो रही हैं। परिणामस्वरूप जो नहीं खिलाना चाहिए, वह खिलाया जा रहा है। जो नहीं पिलाना चाहिए उसे सरकार पैसे के लोभ में पिला रही है। कामवासना, क्रूरता, हिंसा आदि के जिन दृश्यों को सार्वजनिक रूप से नहीं दिखाया जाना चाहिए, मनोरंजन के नाम से दिखाया जा रहा है। जो नहीं पढ़ाना चाहिए वह पढ़ाया जा रहा है और जो अकरणीय एवं समाज एवं राष्ट्र के लिए घातक गतिविधियाँ हैं, वे करवाई जा रही हैं। आज रक्षक ही भक्षक हो रहे हैं। खाने में मिलावट आम बात हो गई है। सारा वातावरण पाशविक वृत्तियों से दूषित हो रहा है। सरकारी तंत्र
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