SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा की विशेषता २७३ पुण्यवंत को भी इष्ट वियोग तथा अनिष्ट संयोग होते हैं ऐसा देखा जाता है । भरतचक्रवर्ती षट्खंड स्वामी होने से सगर्व हुआ था। परन्तु उसके छोटे भाईने उसे पराजित किया था । अर्थात मनुष्य गति में भी अनेक दुःख भोगने पडते हैं। ___ देवगति में भी दुःख प्राप्त होता है। महर्द्धिक देवों का ऐश्वर्य देख कर हीन देवों को मानसिक दुःख उत्पन्न होता है । ऐश्वर्य युक्त देवों को भी देवी के मरने से दुःख होता है। इस प्रकार संसार का स्वरूप जानकर सम्यग्दर्शन, व्रत, समिति, ध्यान आदि को में अपने आत्मा को तत्पर करना चाहिये तथा निजस्वरूप के चिन्तन में तत्पर होकर मोहका सर्वथा त्याग करने से जीवको संसार नष्ट होने से सिद्ध पदकी प्राप्ति होगी। इसी अभिप्राय को ग्रन्थकार ने इस गाथा में व्यक्त किया है इय संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊण । तं झायह ससहावं संसरणं जेण णासेइ ।। ४. एकत्वानुप्रेक्षा इस भाबना को एकत्वानुप्रेक्षा कहते हैं। जिनका मन रागद्वेष मोहादिकों से रहित हुआ है तथा जिनके मन में वैराग्य वृद्धि हुई है ऐसे मुनिराज तथा ब्रम्हचारी आदि गृहत्यागी लोक इस अनुप्रेक्षा को अपनाते हैं। एकत्व चिन्तन से आत्मस्वरूप का अनुभव उत्तरोत्तर जीवको अधिक मात्रा में आता है। जो कुछ भला बुरा कार्य यह जीव करता है उसका अनुभव सुख दुःखरूप उसे ही मिलता है। जीव अकेला ही जन्म लेकर अकेला ही मृत्युवश होता है। रोग शोकादिक अकेला ही भोगता है। जीव ने यदि पुण्य किया तो उसका फल सुख वह अकेला ही भोगता है। तथा यदि वह पाप करेगा तो नरक तिर्यगादि गति में वह दुःख को अकेला ही भोगेगा। उत्तम क्षमादि धर्म ही अपना कल्याण करनेवाले स्वजन हैं वह धर्म ही देव लोक को प्राप्त कर देगा। यह जीव अपने शरीर से भी अपने को भिन्न समजता है तथा अपने आत्मस्वरूप में लीन होकर सर्व मोह का त्यागी होता है तो कर्मक्षय करके वह मुक्ति श्री को वरता है। ५. अन्यत्वभावना कर्म के उदय से जो देह मुझे प्राप्त हुआ है वह मुझसे भिन्न है। माता, पिता, पत्नी, पुत्र ये मुझसे भिन्न हैं । हाथी, घोडा, धन, रथ, घर ये पदार्थ चैतन्यस्वरूपी मुझसे भिन्न ही हैं । तो भी मोह से मैं उन पदार्थों में अनुरक्त हो रहा हूं यह खेद की बात है। मैं चतन हूं और यह मेरा देह अचेतन है । चैतन्य मेरा लक्षण है, देह उससे भिन्न है। यह जानकर मैं अपने स्वरूप में यदि रहूंगा तो मुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212257
Book TitleSwami Karttikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJindas Shastri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size924 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy