________________
साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
है
आ
नहीं है।
ही कालान्तर में अनास्था में बदल जाता है, आस्था के ★ जब तक मतलब निकलता रहे, स्वार्थ पूरा होता अभाव में जीवन व्यवहार भी श्रद्धाविहीन हो जाता है। रहे सब अपने हैं...! जब मतलब न निकले, स्वार्थ पूरा न ___जिन्दगी में उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। वस्तओं हो, उस समय कौन किसका होता है? का कहीं प्राचुर्य है तो कहीं अभाव । अधिक साधनों * जीवन में गुणों का महत्त्व है। विना गुण के वस्तु वाला बहुत ऊंचा है, और थोड़े साधनों वाला नीचा है यह
का भी अवमूल्यन हो जाता है, उसी प्रकार जीवन का विचार सही नहीं है। अमीर-गरीब, छोडा-बड़ा आदि भी। गुण वस्तु का स्वभाव और धर्म होता है, जो उससे समाजिक व्यवस्था का अथवा मानवीय विचार वाला व्यापार कभी अलग नहीं होता, बल्कि आवृत होता है, प्रयोग से,
न को तो विशेषण बना
संसर्ग से। दूध में दुग्धत्व घृत उसका गुण है किन्तु मन्थन दिया गया है, आदमी की उच्चता के लिये। धन का से वह दग्ध सपरेटा होकर विकृत हो जाता है, उसका भी अभाव या प्रभाव जब हम पर हावी नहीं हो, तभी
अवमूल्यन हो जाता है। गुण से ही व्यक्ति का गौरव है। जागरूक जीवन जीने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है।
* किये हुए उपकार को न मानना अकृतज्ञता है। * जब तक जीवन उच्च स्थिति में नहीं पहुँचता है,
माता-पिता/गुरूदेव, पति, पोषक/मित्र आदि द्वारा किये तब तक तो जीने के लिये एक-दूसरे का सहयोग, लेना
गए उपकारों को स्वीकार न कर विपरीत प्रतिकार करना देना एक धर्म है कर्त्तव्य है। व्यक्ति को सहयोग लेना भी
"मेरे लिये क्या किया है, इन्होंने?" मन की यह अभिमान होता है और देना भी होता है। यही सहानुभूति, सहयोग,
वृत्ति है जो सद् गुणों की विनाशक है। तथा सहअस्तित्व के बनाये रखने का एक मार्ग है।
कुछ रीतियाँ नीतियाँ एवं परम्पराएँ सामायिक होती मनुष्य का भाग्य जब दुर्भाग्य में परिणत होता है, जब बुरे कर्मों का उदय होता है, तब दिन दुर्दिन हो जाते
हैं और वे समयानुसार बनती-बिगड़ती रहती हैं। क्योंकि हैं। उस समय सब बातें विपरीत हो जाती हैं, दुश्मन भी
उनके पीछे वक्त का तकाज़ा होता है, सामयिक आवश्यकता, प्रसन्न हो जाते हैं, इस दशा को देख कर लोग भी पराये ।
युग की मांग होती है। हो जाते हैं और लेनदार कर्ज लौटाने का आग्रह करते * गृहस्थ और साधु एक ही मुक्ति मार्ग के राही है, है। ऐसी स्थिति में सुख कहाँ? शरीर का ढांचा हिल अन्तर इतना ही है साधु तेज/त्वरा गति से चलता है और जाता है, चरमरा जाता है, क्योंकि प्रति समय दुख ही गृहस्थ मन्द/मंथर गति से। उसका कारण है कि गृहस्थ दुख/चिंता ही चिंता सताती है । खुशी शुष्क हो गई, हृदय पर पारिवारिक, सामाजिक, व्यवहारिक, राष्ट्रीय आदि में दुःख की शूलें बढ़ गई। विपदा ग्रस्त व्यक्ति की कार्यों के दायित्व रहते हैं। उनका निर्वाह करते हुए वह लगभग यही दशा होती है। विपत्ति में पड़े व्यक्ति को
धर्म साधना करता है जब कि साधु उन सम्पूर्ण दायित्वों से विपदग्रस्त ही सहानुभूति जताता है कि - "भाई! तू।
मुक्त है। क्या सोच रहा है? मेरी तरफ देख, मैं भी विपद ग्रस्त हूँ।" वह हमदर्दी जतायेगा, उसकी कुछ मदद करने की
★ इस काल का क्या भरोसा? पिता-पितामह बैठे कोशिश करेगा। लेकिन संपति में रहने वाला व्यक्ति,
रहते है, पुत्र, पौत्र की मृत्यु हो जाती है। वे उठकर चले विपत्ति में रहनेवाले की मनःस्थिति को क्या समझ पाएगा? .
जाते है सदा के लिये। यदि उन बाप/दादों को 'नाथ' और उसकी कैसे मदद करेगा?
कहलाने का अधिकार है तो फिर उनको पुत्र पौत्रों को
३४
सुमन वचनामृत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org