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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन दर्शन वेश्यागमन का त्याग उचित ही है। यह एक शुभ संकेत ही है कि न केवल जैन समाज में अपितु समग्र भारतीय समाज में वेश्यागमन की प्रवृत्ति और वेश्यावृत्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है। यद्यपि इस प्रवृत्ति के जो दूसरे रूप सामने आ रहे हैं वे उसकी अपेक्षा अधिक चिन्तनीय हैं, यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि चाहे खुले रूप में वेश्यावृत्ति पर कुछ अंकुश लगा हो, किन्तु छद्मरूप में यह प्रवृत्ति बढ़ी ही है। जैन समाज के सम्पन्न वर्ग में इन छद्म रूपों के प्रति ललक बढ़ती जा रही है, जिस पर अंकुश लगाना आवश्यक है। ५. परस्त्रीगमन - परस्त्रीगमन परिवार एवं समाज व्यवस्था का घातक है, इसके परिणाम स्वरूप न केवल एक ही परिवार का पारिवारिक जीवन दूषित एवं अशान्त बनता है, अपितु अनेक परिवारों के जीवन अशान्त बन जाते हैं। वेश्यावृत्ति की अपेक्षा यह अधिक दोषपूर्ण है। क्योंकि इसमें छल-छा और जीवन का दोहरापन भी जुड़ जाता है। अतः सामाजिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा अपराध है। आज कामवासना की तृप्ति का यह छद्म रूप अधिक फैलता जा रहा है। पाश्चात्य देशों की वासनात्मक उच्छृंखलता का प्रभाव हमारे देश में भी हुआ है। क्लबों और होटलों के माध्यम से यह विकृति अधिक तेजी से व्याप्त होती जा रही है। जैन समाज का भी कुछ सम्पन्न एवं धनी वर्ग इसकी गिरफ्त में आने लगा है। यद्यपि अभी समाज का बहुत बड़ा भाग इस दुर्गुण से मुक्त है किन्तु धीरे-धीरे फैल रही विकृति के प्रति सजग होना आवश्यक है। Jain Education International ६. शिकार- मनोरंजन के निमित्त अथवा मांसाहार के लिए जंगल के प्राणियों का वध करना शिकार कहा जाता है। यह व्यक्ति को क्रूर बनाता है। यदि मनुष्य को मानवीय कोमल गुणों से युक्त बनाये रखना है तो इस वृत्ति का त्याग अपेक्षित है। आज शासन द्वारा भी वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए शिकार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा रहा है। अतः इस प्रवृत्ति के त्याग का औचित्य निर्विवाद है। आज हम इस बात को गौरव से कह सकते हैं कि जैन समाज इस दुर्गुण से मुक्त है, किन्तु आज सौन्दर्य-प्रसाधनों, जिनका उपभोग समाज में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है, इस निमित्त अव्यक्त रूप से हो रही हिंसा के प्रति सजग रहना आवश्यक है। क्योंकि उनका उत्पादन उपभोक्ताओं के निमित्त हो होता है और यदि हम उनका उपयोग करते हैं तो उस हिंसा एवं क्रूरता से अपने को बचा नहीं सकते हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण एवं परीक्षण के निमित्त हिंसा के जो क्रूरतम रूप अपनाए जाते हैं वे जैन पत्र-पत्रिकाओं में बहुचर्चित रहे हैं। अतः उन सब पर यहाँ विचार करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता। किन्तु इस सन्दर्भ में हमें सजग अवश्य रहना चाहिए कि हम क्रूरता के भागी न बनें। - ७. चौर्यकर्म - दूसरों की सम्पत्ति या दूसरों के अधिकार की वस्तुओं को उनकी बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी है। अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह और संचय को भी चोरी कहा जा सकता है। जैनाचार्यों ने व्यावसायिक अप्रमाणिकता कर- अपवंचन तथा राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कार्य करना आदि को भी चोरी के अन्तर्गत माना है। यद्यपि सामान्यतया जैन-परिवार इस दुर्व्यसन से मुक्त कड़े जा सकते हैं किन्तु जैनाचार्यों ने इसकी जो सूक्ष्म व्याख्या की है, उस आधार पर आज का गृहस्थ वर्ग इस दुर्व्यसन से कितना मुक्त है, यह कहना कठिन है। व्यावसायिक अप्रमाणिकता और कर अपवंचन आज सामान्य हो गये हैं। व्यावसायिक अप्रमाणिकता के इस युग में इसकी प्रासंगिकता को नकारा तो नहीं जा सकता किन्तु वर्तमान युग में कौन इससे कितना बच सकेगा, इस पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार करना अपेक्षित है। गृहस्थ जीवन की व्यावहारिक नीति गृहस्थ जीवन में कैसे जीना चाहिए? इस सम्बन्ध में थोड़ा निर्देश आवश्यक है। गृहस्थ उपासक का व्यावहारिक जीवन कैसा हो, इस सम्बन्ध में जैन आगमों में यत्र-तत्र बिखरे हुए कुछ निर्देश मिल जाते हैं। लेकिन बाद के जैन विचारकों ने कथा साहित्य, उपदेश साहित्य एवं आचार सम्बन्धी साहित्य में इस सन्दर्भ में एक निश्चित रूप-रेखा प्रस्तुत की है। यह एक स्वतन्त्र शोध का विषय है। हम अपने विवेचन को आचार्य नेमिचन्द्र के प्रवचनसारोद्धार, आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र तथा पं० आशाधरजी के सागारधर्मामृत तक ही सीमित रखेंगे। सभी विचारकों की यह मान्यता है कि जो व्यक्ति जीवन के सामान्य व्यवहारों में कुशल नहीं है, वह आध्यात्मिक जीवन की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता। धार्मिक या आध्यात्मिक होने के लिए व्यावहारिक या सामाजिक होना पहली शर्त है। व्यवहार से ही परमार्थ साधा जा सकता है। धर्म की प्रतिष्ठा के पहले जीवन में व्यवहारपटुता एवं सामाजिक जीवन जीने की कला का आना आवश्यक है। जैनाचार्यों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही समझ लिया था। अतः अणुव्रत-साधना के पूर्व ही इन योग्यताओं का सम्पादन आवश्यक है। आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें " मार्गानुसारी" गुण कहा है। धर्म-मार्ग का अनुसारण करने के लिए इन गुणों का होना आवश्यक है। उन्होंने योगशास्त्र के द्वितीय एवं तृतीय प्रकाश में निम्न ३५ मार्गानुसारी गुणों का विवेचन किया है: (१) न्याय नीतिपूर्वक ही धनोपार्जन करना। (२) समाज में जो ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध शिष्टजन है, उनका यथोचित सम्मान करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना और उनके आचार की प्रशंसा करना। (३) समान कुल और आचार-विचार वाले, स्वधर्मी किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न जनों की कन्या के साथ विवाह करना (४) चोरी, परस्त्रीगमन, असत्यभाषण आदि पापकर्मों का ऐहिक पारलौकिक कटुक-विपाक जानकर, पापाचार का त्याग करना। (५) अपने देश के कल्याणकारी आचार-विचार एवं संस्कृति का पालन करना तथा संरक्षण करना। (६) दूसरों की निन्दा न करना। (७) ऐसे मकान में निवास करना जो न अधिक खुला और न अधिक गुप्त हो, जो सुरक्षा वाला भी हो और जिसमें अव्याहत वायु एवं प्रकाश आ सके। (८) सदाचारी जनों की संगति करना। ( ९ ) माता-पिता का सम्मान सत्कार करना, उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट रखना। (१०) जहाँ वातावरण शान्तिप्रद न हो, जहाँ निराकुलता के साथ जीवन यापन करना कठिन हो, ऐसे ग्राम या नगर में निवास न करना (११) देश, जाति एवं कुल से विरुद्ध कार्य न करना, जैसे मदिरापान आदि । (१२) देश और काल के अनुसार [१०] - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212055
Book TitleShravak Achar ki Prasangikta ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Publication Year1999
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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