________________
वतीन्द्ररिमारकंद - जैन दर्शन - से यौन सम्बन्ध स्थापित करना।
कार्यक्षेत्र सीमित हो जावेगा किन्तु जो वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से ३. अप्राकृतिक साधनों से काम-वासना को सन्तुष्ट करना, जैसे- अवगत हैं, वे यह भली प्रकार जानते हैं कि आज कोई भी राष्ट्र विदेशी हस्त-मैथुन, गुदा-मैथुन, समलिंगी-मैथुन आदि।
व्यक्ति को अपने यहाँ पैर जमाने देना नहीं चाहता है, दूसरे यदि हम ४. पर-विवाहकरण अर्थात् स्व-सन्तान के अतिरिक्त दूसरों के अन्तर्राष्ट्रीय शोषण को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें इस बात से विवाह सम्बन्ध करवाना। वर्तमान संदर्भ में इसकी एक व्याख्या यह सहमत होना होगा कि व्यक्ति के धनोपार्जन की गतिविधि का क्षेत्र भी हो सकती है कि एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना। सीमित हो। अत: इस व्रत को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता है। ५. काम-भोग की तीव्र अभिलाषा।
७. उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत-व्यक्ति की भोगवृत्ति पर उपर्युक्त पाँच निषेधों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अव्यावहारिक अंकुश लगाना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इस व्रत के अन्तर्गत और वर्तमान संदर्भो में अप्रासंगिक कहा जा सके।
श्रावक को अपने दैनंदिन जीवन के उपभोग की प्रत्येक वस्तु की संख्या, ५. परिग्रह-परिमाण व्रत-इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक मात्रा आदि निर्धारित करनी होती है-जैसे वह कौन सा मंजन करेगा, से यह अपेक्षा की गई है कि वह अपनी सम्पत्ति अर्थात् जमीन-जायदाद, किस प्रकार के चावल, दाल, सब्जी, फल-मिष्ठात्र आदि का उपभोग बहुमूल्य धातुएँ, धन-धान्य, पशु एवं अन्य वस्तुओं की एक सीमा-रेखा करेगा, उनकी मात्रा क्या होगी, उसके वस्त्र, जूते, शय्या आदि किस निश्चित करे और उसका अतिक्रमण नहीं करे। व्यक्ति में संग्रह की प्रकार के और कितने होंगे। वस्तुत: इस व्रत के माध्यम में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है और किसी सीमा तक गृहस्थ-जीवन में संग्रह भोग-वृत्ति को संयमित कर उसके जीवन को सात्विक और सादा बनाने आवश्यक भी है, किन्तु यदि संग्रह-वृत्ति को नियन्त्रित नहीं किया जावेगा का प्रयास किया गया है, जिसकी उपयोगिता को कोई भी विचारशील तो समाज में गरीब और अमीर की खाई अधिक गहरी होगी और व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। आज जब मनुष्य उद्दाम भोग-वासना वर्ग-संघर्ष अपरिहार्य हो जावेगा। परिग्रह-परिमाणव्रत या इच्छा- में आकण्ठ डूबता जा रहा है, इस व्रत का महत्त्व स्पष्ट है। परिमाणव्रत इसी संग्रह-वृत्ति को नियन्त्रित करता है और आर्थिक वैषम्य जैन-आचार्यों ने उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत के माध्यम से यह का समाधान प्रस्तुत करता है। यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में इस सम्बन्ध भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गृहस्थ उपासक को किन साधनों में कोई सीमा-रेखा नियत नहीं की गई है, उसे व्यक्ति के स्व-विवेक के द्वारा अपनी अजीविका का उपार्जन करना चाहिए और किन साधनों पर छोड़ दिया गया था, किन्तु आधुनिक संदर्भ में हमें व्यक्ति की से आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ उपासक के लिए आवश्यकता और राष्ट्र की सम्पन्नता के आधार पर सम्पत्ति या परिग्रह निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के व्यवसायों के द्वारा आजीविका अर्जित की कोई अधिकतम सीमा निर्धारित करनी होगी, यही एक ऐसा उपाय करना निषिद्ध माना गया हैहै जिससे गरीब और अमीर के बीच की खाई को पाटा जा सकता १. अङ्गारकर्म-जैन-आचार्यों ने इसके अन्तर्गत आदमी को अग्नि है। यह भय निरर्थक है कि अनासक्ति और अपरिग्रह के आदर्श से प्रज्ज्वलित करके किये जाने वाले सभी व्यवसायों को निषिद्ध बताया
आर्थिक-प्रगति प्रभावित होगी। जैन-धर्म अर्जन का उसी स्थिति में है; जैसे-कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि के व्यवसाय। किन्तु विरोधी है, जब कि उसके साथ हिंसा और शोषण की बुराइयाँ जुड़ती मेरी दृष्टि में इसका तात्पर्य जंगल में आग लगाकर कृषियोग्य भूमि हैं। हमारा आदर्श है- सौ हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों तैयार करना है। से बाँट दो। गृहस्थ अर्थोपार्जन करे, किन्तु वह न तो संग्रह के लिये २. वनकर्म-जंगल कटवाने का व्यवसाय। हो और न स्वयं के भोग के लिये, अपितु उसका उपयोग लोक-मंगल ३. शकटकर्म-बैलगाड़ी, रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय। के लिये और दीन-दुःखियों की सेवा में हो; वर्तमान सन्दर्भ में इस ४. भाटककर्म-बैल, अश्व आदि पशुओं को किराये पर चलाने व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यदि आज हम स्वेच्छा से नहीं अपनाते का व्यवसाय। हैं तो या तो शासन हमें इसके लिये बाध्य करेगा र अभावग्रस्त ५. स्फोटिकर्म-खान खोदने का व्यवसाय। वर्ग हमसे छीन लेगा, अतः हमें समय रहते सम्हल जाना चाहिये। ६. दन्तवाणिज्य-हाथी-दाँत आदि हड़ी का व्यवसाय। उपलक्षण
६.दिक-परिमाणव्रत-तृष्णा असीम है, धन के लोभ में मनुष्य से चमड़े तथा सींग आदि के व्यवसायी भी इसमें सम्मिलित हैं। कहाँ-कहाँ नहीं भटका है। राज्य की तृष्णा ने साम्राज्यवाद को जन्म ७. लाक्षा-वाणिज्य-लाख का व्यवसाय। दिया, तो धन-लोभ में व्यावसायिक उपनिवेश बने। अर्थ-लोलुपता ८. रस-वाणिज्य-मद्य, मांस, मधु आदि का व्यापार। तथा विषय-वासनाओं की पूर्ति के निमित्त आज भी व्यक्ति देश-विदेश ९. विष-वाणिज्य-विभिन्न प्रकार के विषों का व्यापार। में भटकता है। दिक्-परिमाणवत मनुष्य की इसी भटकन को नियन्त्रित १०. केष-वाणिज्य--बालों एवं रोमयुक्त चमड़े का व्यापार । करता है। गृहस्थ उपासक के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने ११. यन्त्रपीडनकर्म-यन्त्र, साँचे, कोल्हू आदि का व्यापार। अर्थोपार्जन एवं विषय-भोग का क्षेत्र सीमित करे। इसीलिए उसे विविध उपलक्षण से अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार भी इसी में सम्मिलित है। दिशाओं में अपने आवागमन का क्षेत्र मर्यादित कर लेना होता है। १२. नीलाच्छनकर्म-बैल आदि पशुओं को नपुंसक बनाने का यद्यपि वर्तमान संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि इससे व्यक्ति का व्यवसाय।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org