________________
१५२
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
इस सिद्धि से आकाश में उपलब्ध होने वाली विविध भाषाओं को सुन सकता है और समझ सकता है।'
जो नेत्रों को सूर्य में और सूर्य को नेत्रों में संयुक्त सम्बन्ध स्थापित कर दोनों के संयोग में मन ही मन भगवत् स्वरूप का ध्यान करता है उसे 'दूर-दर्शन' नाम की सिद्धि प्राप्त होती है । इस सिद्धि से योगी समग्र विश्व को देख सकता है।
प्राणवायु सहित मन और शरीर को ईश्वर-शक्ति के साथ संयुक्त कर ईश्वर की धारणा करता है, वह 'मनोजब' सिद्धि को प्राप्त करता है। इस सिद्धि से जहाँ जाने की इच्छा होती है क्षण भर में वह वहाँ पहुँच जाता है।
जो योगी भगवत् स्वरूप में चित्त लगा देता है वह मनोनुकूल रुप धारण करने में समर्थ हो जाता है।
जो योगी दूसरों के शरीर में प्रवेश करना चाहे 'मैं वही हूँ' ऐसी दृढ़ धारणा से उसकी प्राणवायु एक फूल से दूसरे फूल पर बैठने वाले भ्रमर की भाँति परकाय-प्रवेश में सफल हो जाती है।
भगवत् भक्ति में जिसका चित्त शुद्ध हो जाता है वह त्रिकालदर्शी हो जाता है। योगमय शरीर को अग्नि आदि कोई पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते हैं।'
योगी प्राणवायु को हृदय, वक्षस्थल, कण्ठ और मूर्धा में ले जाकर ब्रह्मरन्ध्र द्वारा ब्रह्म में लीन कर देता है । स्वेच्छा मृत्यु का क्रम यही है।
पातंजल योगदर्शन के विभूतिपाद में विविध सिद्धियों की चर्चा है। ध्यान, धारणा, समाधि तीनों के ही युगपद् अभ्यास का नाम संयम है। संयम साधना से सिद्धियों की उपलब्धि होती है।
पाँच महाभूत एवं इन्द्रिय समूह की तीन प्रकार की परिणतियाँ हैं। धर्म, लक्षण एवं अवस्था इन तीनों परिणामों में संयम साधना से अतीत-अनागत का ज्ञान होता है। शब्द, अर्थ एवं प्रत्यय इन तीनों के भिन्नत्व स्वरूप में संयम करने से सम्पूर्ण वाणी का ज्ञान हो जाता है। संस्कारों की प्रत्यक्षानुभूति में संयम करने से पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।3 चित्त प्रत्यय में संयम से परचित्त का ज्ञान हो जाता है ।१४
१. श्रीमद्भागवत महापुराण, ११।१५।१६. २. वही, ११।१५।२०. ३. वही, ११।१५।२१. ४. वही, ११।१५।२२. ५. वही, ११।१५।२३. ६. वही, ११।१५।२८. ७. वही, ११।१५।२६. पार्ष्याऽऽपीड्यगुदं प्राणं हृदुरः कंठमूर्धसु ।
आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रण ब्रह्मनीत्वोत्सृजेत्तनुम् ॥ --वही, ११।१५।२४. ६. त्रयमेकत्र संयमः। -पातंजल यो० विभूतिपाद, ३।४. १०. एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याता। -पा० वि० ३।१३. ११. परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् । -पा० वि० ३।१६. १२. पा० वि०, ३।१७. १३. संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्व जातिज्ञानम्। -पा० वि० ३।१८. १४. प्रत्ययस्य परचित्त ज्ञानम् । -पा० वि० ३।१६.,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org