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नवकार हमें जीवन-बोध कराता है, परमात्मा तक पहुँचने की दूरी कम करके हमारा सम्बन्ध परमात्मा तक जोड़ता है। जगत्भाव दूर ले जाकर वह हमें आत्मभाव से जोड़ता है। नवकार मन्त्र लक्ष्य-बोध द्वारा हमें लक्ष्य तक पहुँचाता है। यह हमें भटकने से बचाता है। हमारे चाल-चलन में सुधार लाता है और हमारे जीवन कां स्पष्ट लेखा-जोखा हमारे सामने रख देता है। ये पाँचों परम इष्ट है।
परम इट की प्राप्ति
इष्ट और परम इष्ट में फर्क है। हमारे अन्य इष्ट जन-संसारी / सम्बन्धी हमें धोखा दे सकते हैं; पर ये परम इष्ट पंच परमेष्ठी कभी धोखा नहीं देते। ये तो हमारे आत्मविश्वास को जामत करके हमारा आत्मबल बढ़ाते हैं। पंचपरमेष्ठी भगवान् हमारे पूरे जीवन को बदल सकते हैं; हमारा कायाकल्प कर सकते हैं; किन्तु यह तभी हो सकता है, जब नवकार को अपने हृदय में उतार लें। इससे पहले हमें इसके स्वरूप को अच्छी तरह समझ लेना होगा और यह जो कहता है, उसे मानना होगा। इसे पाने के लिए जगत्-भाव का त्याग करना होगा और 'नवकार भावों को पकड़ना होगा।
नवकार भाव अपने में आते ही सभी प्रकार के दुर्भाव हमें छोड़ जाएँगे। दुर्भावों की डकैती का डर फिर हमें नहीं होगा। हम में नवकार-भाव का अभाव है, इसीलिए दुर्भावना हमारे भीतर समायी हुई है। हमारे जीवन में सद्विचारों की गंगा प्रवाहित होनी चाहिये; यह तभी संभव होगा, जब हम नवकार को अपने भीतर प्रतिष्ठित कर लेंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो नवकार के अभाव में हमारे जीवन में केवल कुविचारों की अस्वच्छ नाली प्रवाहित रहेगी और हमारा सारा जीवन विकृत हो जाएगा।
इसलिए नवकार के हर अक्षर, हर पद और हर भाव को हम विचारपूर्वक समझें और उसके निकट जाएँ। यदि ऐसा हुआ, तो अवश्य ही परम इष्ट की प्राप्ति हुए बिना नहीं रहेगी। हमें अपना अधिकृत स्थान अवश्य प्राप्त होगा। गन्तव्य कहाँ है?
आज हमारा स्थान ही कहाँ है? हम जहाँ है, अस्थिर है। हम मान लेते हैं कि हमें स्थान मिल गया; पर है हमारा यह भ्रम । हमारा स्थान स्थायी नहीं है। इस संसार में किसी का भी स्थान स्थायी नहीं है। सभी अस्थिर है भले ही घर का मालिक या देश का मालिक कोई बन गया हो; पर वह वहाँ स्थायी रूप से दिखायी नहीं देता।
किसी का भी स्थान स्थायी नहीं है घर में रहने वाला घर छोड़ता है भागा-भागा बाजार जाता है। बाजार में गया हुआ भागा-भागा घर लौटता है। उसका सही स्थान कहाँ है? दूकान है या घर है? कोई घर से परदेस जाता है तो कोई परदेस से घर आता है। है कहाँ ठिकाना ? जरा इन सब से पूछो तो सही! भटकाव कैसा?
इस संसार में जहाँ देखो वहाँ सब प्राणी भटकते नजर आ रहे है; क्योंकि उन्हें अभी तक अपना अधिकृत स्थान नहीं मिला अपना
श्रीमद जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना
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स्थान मिल जाए, तो फिर गमनागमन और आवागमन रुक सकता है, पर हम हैं कि बिना पते के आगे बढ़ रहे हैं। गन्तव्य की जानकारी ही नहीं है, न पता है और न मुकाम
अपना पता लगाने के लिए और अपना मुकाम पाने के लिए हमें इन परमेष्ठि भगवन्तों के निकट पहुँच कर इनका आलंबन लेना होगा, क्योंकि परमेष्ठियों का स्थान निश्चित है स्थान तो उसका अनिश्चित है, जो इनके निकट नहीं आ पाया। यदि हमें अपने सही और स्थायी स्थान पर पहुँचना है, तो इन परमेष्ठियों को पहचानना अत्यन्त आवश्यक है।
परमेष्ठी भगवंतों के निकट जाना अपने सही और स्थायी स्थान को पाना है। उनके निकट जाते ही हमारे भटकाव का अन्त हो जाएगा। जो परमेष्ठियों से दूर रहे, वे संसार में भटक गये और जो परमेष्ठियों के निकट आ गये, वे अपना भटकाव भूल गये ।
चक्की : एक पाट पाप, एक पाट पुण्य
संसार एक चक्की है। पुण्य और पाप उस चक्की के पाट हैं। परमेष्ठियों से जो दूर हुआ, वह पाप-पुण्य के इन दो पाटों के बीच पिस जाएगा। उसका संसार भ्रमण जारी रह जाएगा। परमेष्ठियों के सान्निध्य में रहने वाला संसार भ्रमण से बच जाएगा; क्योंकि वह पुण्य और पाप के परे हो जाएगा।
परमेष्ठी : बीच की कील
आटे की चक्की आपने देखी है उसमें दो पाट होते हैं। बीच में एक कील होती है। ऊपर से अनाज डाला जाता है। चक्की घूमती है और अनाज पिस जाता है। आपको मालूम होगा कि चक्की में डाले जाने के बावजूद भी कुछ दाने सुरक्षित रह जाते हैं। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वे दाने कील के बिलकुल निकट रहे। कील के निकट रहने वाले दाने पिसने से बच गये। तो जो कील के निकट रहता है, उसकी रक्षा होती है और जो कील से दूर रहता है वह पीसा जाता है। कील के पास रहने वाला चक्कर में नहीं आता।
तो, जो परमेष्ठी भगवंतों की शरण में जाता है, वह इस भव-भ्रमण रूप संसार चक्की में नहीं पीसा जाता। परमेष्ठी भगवन्त इस जगत् के बीच कील-तुल्य है। हम भी यदि उनकी शरण ले लें. तो फिर संसार की चक्की चाहे जितनी चले, हम उसमें अधिक समय तक पीसे नहीं जाएँगे। जल्दी ही हमारे भव-भ्रमण का अन्त हो जाएगा।
जप आत्म-परिणमन
पंचपरमेष्ठी नमस्कार मन्त्र परम मंगलमय है। हमें नवकार के भीतर भावात्मक रूप से प्रवेश करना चाहिये। जो भावात्मक रूप से नवकार नहीं जपता, उसका कर्म भी नहीं खपता खपेगे उसी के, जो जपेगा जो सावधान होकर काम करेगा, उसी का काम होगा।
हमारा जपना कैसा है? केवल ओठ हिलते हैं, पर हृदय आन्दोलित नहीं होता। उसमें आत्मा के परिणाम नहीं मिलते। आत्मा के परिणाम तो उसमें तब मिलेंगे, जब हम नवकार को सम्यक् रूप
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लोभ मोह मद वासना, सभी नरक के द्वार । जयन्तसेन तजो सदा, बढ़े नहीं संसार ॥ www.jainelibrary.org