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________________ योग और नारी १६६ . । शक्ति की उपासनाल बल से नारी स, प्रक्षेप जो मित्रायां दर्शनं मन्दं यम-इच्छादिकस्तथा। अखेदोदेव कार्यादा..............................॥ दूसरी दृष्टि का नाम 'तारा' है। तारा भारतीय संस्कृति के गौरव की प्रतीक नारी है जिसने अपने पति हरिश्चन्द्र के सत्य को जीवित रखने हेतु अपने आप में ही अगाध कष्ट को सहन करना स्वीकार किया। महारानी होने पर भी वह एक ब्राह्मण के घर में दासी बनकर कठोर कष्ट सहन करती है जो एक महासती के गौरव के अनुकूल है। तारा दृष्टि के विश्लेषण में आचार्य ने यही स्वरूप प्रतिपादित किया है। जैसे हरिश्चन्द्र को देखने में महासती तारा कुछ स्पष्ट रही वैसे ही तारादृष्टि में कुछ दर्शन स्पष्ट होता है। उसमें भी नियम का सम्यक् प्रकार से पालन किया जाता है। वह हित की प्रवृत्ति में उद्विग्न नहीं होती, और तत्त्व के सम्बन्ध में सदा जिज्ञासु बनी रहती है। एतदर्थ ही कहा है तारायां तु मनाक् स्पष्ट नियमश्च तथाविधः । अनुद्वगो हितारम्भे जिज्ञासा तत्त्वगोचरा ॥ योग की भूमि पर नारी अपने आराध्यदेव के दर्शन हेतु कुछ स्पष्ट होती है और नियम के पालन में पूर्ण तत्पर होती है जिससे आराध्य के अन्तर्मानस में किंचित् मात्र भी उद्वेग न हो। तारा नेत्रों के पलकों में प्रमुदित होने वाली वह दिव्य ज्योति है जो सती होकर योग-साधना की एक श्रेष्ठ पगडण्डी भी है। तृतीय योगदृष्टि का नाम 'बला' है। भारतीय नीति साहित्य में नारी को जहाँ अबला कहा गया है वहाँ वह सबला भी है । नारी बल की प्रतीक है । शक्ति की उपासना के लिए दुर्गा की आराधना की जाती है। मेरी दृष्टि से बला नामक कोई नारी अतीत काल में हुई है जिसने अपने अतुल बल से नारी समाज के गौरव में चार चांद लगाये । वह स्थिरासन होकर आत्मसाधना में सदा तल्लीन रहती होगी और आक्षेप, विक्षेप, प्रक्षेप जो साधना में बाधक हैं उन्हें जीवन में नहीं आने देती होगी । वह बला जितनी दृढ़ थी उतनी ही दक्ष भी थी। इस प्रकार दृढ़ता और दक्षता का अपूर्व संगम उसमें था। आचार्य ने भी इन्हीं दृढ़ता, दक्षता, स्थिरता आदि भावों को बलादृष्टि के निरूपण में स्पष्ट किया है सुखासनसमायुक्त बलायां दर्शनं बृढम् । परा च तत्त्वशुधूषा न क्षेपो योगगोचरः॥' चतुर्थ दृष्टि का नाम 'दीप्रा' है । दीप्रा जो सदा साधना की ज्योति को प्रदीप्त रखती है। जब भी साधना में विचार धुमिल होने लगते हैं तब दीप्रा उस ज्योति को पुनः प्रदीप्त करती है। सम्भव है दीपा नामक कोई विशिष्ट नारी रही होगी जिसने साधना के अखण्ड दीप को प्रज्वलित रखा हो। जैन साहित्य में बाहुबलि को अभिमान के गज से उतारने वाली ब्राह्मी और सुन्दरी थीं और रथनेमि को साधना में स्थिर करने वाली राजीमती थी। ऐसी ही नारियों से साधना दीप्त रही है । अत: योगदृष्टियों में भी दीप्रा का उल्लेख किया गया है। पांचवीं योगदृष्टि का नाम "स्थिरा' है जो स्थिरता के भावों को प्रगटाने का विधान प्रस्तुत करती है। नारी पृथ्वी के समान स्थिर है, हिमालय की तरह अडिग है। निर्मल भावभूमि पर अवस्थित होकर वह साधना में स्थिर रहने की प्रबल प्रेरणा प्रदान करती है। बिना स्थिरादृष्टि के परिवार, समाज और राष्ट्र को स्थिति विषम बन जाती है। इसीलिए साधना में भी स्थिरा की आवश्यकता है। आचार्य ने स्थिरादृष्टि का निम्न प्रकार से वर्णन किया है स्थिरायां दर्शनं नित्यं प्रत्याहारवदेव च । कृत्यमभ्रान्तमनघं सूक्ष्मबोध समन्वितम् ॥४ छठी दृष्टि का नाम 'कान्ता' है। विभाव से निवृत्ति और स्वभाव में प्रवृत्ति यही कान्ता की कमनीयता है। महर्षि पतंजलि ने योग का छठा अंग धारणा माना है। धारणा का वास्तविक अर्थ है आत्मा के सद्गुणों को धारण करना। अध्यात्मोपनिषद् में लिखा है-"आत्मप्रवृत्ती अतिजागरूकः, परप्रवृत्ती बधिरान्धमूकः ।" अपने आत्मा की कान्ति में कान्ता बनी हुई नारी सदा ज्योतिर्मान रहती है। पर-भाव का परित्याग कर आत्मभाव में रहती है। परभाव में वह अन्धे, गूंगे और बहरे के समान बन जाती है। अपने कान्तभाव के अतिरिक्त उसे कहीं पर भी आनन्द की उपलब्धि नहीं होती। यही भाव आचार्य ने कान्तादृष्टि में व्यक्त किये हैं कान्तायामेतदन्येषा प्रीतये धारणा परा। अतोऽत्र नान्यमुन्नित्यं मीमांसाऽस्ति हितोदया ॥ सातवीं दृष्टि का नाम 'प्रभा' है। प्रभा को आचार्य ने ध्यान-प्रिया कहा है । ध्येय में बुद्धि को स्थिर कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211784
Book TitleYoga aur Nari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGovindram Vyas
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain woman
File Size447 KB
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