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विपरित मार्ग को अपनाने लगे हैं, उन्हीं को दृष्टि के मध्य रखकर झगड़े, कोर्ट-केस, हिंसा करते हैं। जिन्होंने इनसे अलग रहने के लिए हमारा मार्ग प्रशस्त किया था। कैसी भयंकर विडम्बना है कि हम राग-द्वेष से रहित प्रभु को ही राग-देष की ज्वालाओं में डाल देते है।
जैन मंदिरो और मूर्तियों की स्थापना का एक मात्र लक्ष्य यहीं तो है कि हम नित्य निरंतर उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त कर ध्यान, सम्यकत्व और वितरागता की ओर बढ़े। मन्दिर में जाते व मूर्ति का दर्शन करते ही हम एकाग्रता - चित से तीर्थंकरों के गुणों का स्मरण करते हुए व अपने दोषों की ओर ध्यान देते हुए उन गुणों को प्रगटित करने की प्रेरणा प्राप्त करें तथा प्रयत्न और पुरुषार्य, वीतरागता की प्राप्ति के लिए हि करें। वितराग को देखकर हमारे हदय मन्दिर में एक प्रेरणा ओर प्रकाश जागृत हो कि हम निरंतर राग-द्वेष में झूल रहे है, यह हमारी सबसे बड़ी मूल है। इसको मिटाना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक है। खेद है कि हम मंदिर और मूर्तियों को लेकर भी राग-द्वेष बढा ही रहे है। अत: वीतराग का मूल ध्येय ही भूलाया जा रहा है।
यह श्वेताम्बर मन्दिर है, यह दिगम्बर, यही भावना ठीक नहीं। किन्तु जब श्वेताम्बर यह सुन लेते हैं कि यह दिगम्बर मन्दिर है और दिगम्बर यह जान लेते है कि यह श्वेताम्बर मन्दिर है तो उन्हें अपना-अपना नहीं मानकर एक दूसरे के मन्दिरों में नहीं जाते, दर्शन वन्दन नहीं करते। अपितु उपेक्षा करते है। फिर ऐसी अलगाव की भावनाएँ क्यों पनपती हैं -हमारे भीतर? दृष्टि-राग के कारण ही तो। मेरी राय में तीर्थंकरों की यह उपेक्षा, अवहेलना, आशातना और अपमान है। पर दृष्टि-राग में वीतराग भगवान के मंदिर या मूर्ति प्रमुख नहीं रहते श्वेताम्बर या दिगम्बर सम्प्रदाय मुख्य हो जाते हैं। इसीलिये वीतराग की मूर्ति को देखकर जो प्रशांत और निर्मल भाव उत्पन्न होने चाहिए वे उत्पन्न नहीं हो पाते, वरन कही-कही तो विपरित भाव भी दिखाई देते है। तीर्थों और मूर्तियों के झगड़े में समय, शक्ति और धन की बर्बादी हो रही हैं यह किसी से भी छिपा नहीं हैं। फिर भी यह विवाद समाप्त ही नहीं होते बल्कि दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जाते हैं। क्योंकि दृष्टि-राग हमारे मानस पर गहरे रुप में छाया हुआ है। वास्तव में जहाँ जाकर हमारे-राग-द्वेष शांत होने चाहिये, वहाँ वे उल्टे बढ़ते हुये दिखाई देते है।
किसी एक मूर्ति के प्रति हमारा इतना अधिक आकर्षण या दृष्टि-राग हो जाता है कि "हम बैसी ही" दूसरी मतियों की पूजा व मान्यता उस रुप में नहीं करते जिस रूप में अपनी मानी हुई चमत्कारिक या विशेष श्रद्धा प्राप्त मूर्ति की करते हैं। जल कि वीतरागता की प्रेरणा देने वाली सभी मतियाँ समान हैं तो एक मूर्ति विशेष में ही अपनी श्रद्धा को केन्द्रीत करना और दूसरी मूर्तियों की उपेक्षा करना, उसी के समान पूजा नहीं करना यह दृष्टि राग ही तो है। एक मंदिर में एक मूर्ति का दर्शन करने सैकड़ों-हजारों लोग नित्य जाते है, उसी मंदिर की सारी मूर्तियाँ या पास के अन्य मन्दिरों में दर्शन-पूजन करने वाले विरले ही पहुँचते होंगे। इस वृत्ति में दृष्टि-राग ही है। इसी कारण एक मन्दिर में धूम-धाम, चहल-पहल हैं दुसरे मन्दिर में सूनापन। एक मन्दिर में लाखों की आमदानी है तो दूसरे में पूजा का भी प्रबन्ध नहीं हैं। और भी ताज्जुब की बात तो यह है कि एक मन्दिर में लाखों की आमदानी है तो दूसरे में पूजा का भी प्रवन्ध नहीं और भी ताज्जुब की बात तो यह है कि एक मन्दिर में लाखों पड़े है तो दूसरा मन्दिर दिन प्रतिदिन जीर्ण-शीर्ण होता जा रहा हैं, टूट फूट रहा है और उसमें कोई पूजा भी नहीं करता, यह सब देखते हुए भी उसके जीर्णोद्धार, पूजा व्यवस्था में समृद्ध मन्दिर से कुछ भी नहीं दिया जाता। सोचिये कि दोनों ही मन्दिर उन्हीं तीर्थंकरों की मूर्तिया वाले हैं फिर उनमें इतना भेद-भाव व अन्तर क्यों? रुपया किसी व्यक्ति का नहीं, तीर्थंकरों के मन्दिर का हैं पर यहाँ अपना-पराया, मेरा-तेरा यह भेद-भाव इतना छा गया है कि हम कर्तव्य का भान भूल गये हैं। मानों उस मन्दिर का पैसा हमारा अपना हो, जाबकि हम केवल उसके संरक्षक एवं व्यवस्थापक मात्र हैं। जहाँ एक और सहस्त्रों की तादाद में मूर्तियों नष्ट हो जा रही है, उनकी कोई सार संभाल रखने वाला नहीं, दूसरी ओर हजारों मूर्तियों व मन्दिर बनते जा रहे है। ऐसा क्यों? उत्तर है कि हम बनायेंगे तो हमारा नाम रहेंगे। दूसरे के बनाए हुए मन्दिर और मूर्तियाँ है तो उसमें हमारा क्या? इसीलिए प्राचीन और सुन्दर मूर्तियाँ सर्वथा उपक्षित है, कहीं-कही तो भयंकर आशातना हो रही है, पर उस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हमें तो अपा शिलालेख खुदाना है, अपना नाम कमाना है। यह हमारी असम्यक दृष्टि-मिथ्या दृष्टि का ही परिचायक है। दृष्टि-राग के कारण ही हमारी दृष्टि सम्यक नहीं हो पाती। चिंतन और प्रवृत्ति सही नहीं होती।
इसी प्रकार अपने गुण, गच्छ और गरुओं को लें, जिस संप्रदाय का गच्छ का या सम्प्रदाय का भी जो उपासक होता है, उसी में उसका राग बंध जाता है। इसलिए दूसरे संप्रदाय गच्छ या समुदाय के अच्छे व्यक्तियों व अच्छी बातों की
ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता या उपेक्षा करता है। श्वेताम्बर दिगम्बर गुरुओं के पास नहीं जाते, यदि जाते हैं अपने माने हुए गुरु के प्रति जैसा सद्भाव या भक्तिभाव होता है वैसा उसके प्रति नहीं होता। इसी तरह दिगम्बरों का श्वेताम्बर साधुओं के प्रति भाव होता हैं। क्यों? क्योंकि हमारी दृष्टि बाहरी परिवेश, वेश या लिंग तक ही सीमित हो गई हैं, दूसरे वेश या व्यक्ति चाहें वह कितना उँचा हो हम उसे उतना अधिक महत्व नहीं देते जितना हम हमारे सम्प्रदाय के कम गुणवान वेशधारी को देते हैं। क्योंकि हमारी दृष्टि बाझ नाम, रुप के प्रति अधिक गहरी होती हैं यह सब दृष्टिराग के कारण ही होता है।
भिन्न संप्रदाय की बात छोड भी दें तो भी, एक ही गच्छ या संप्रदाय में भी हमारी दृष्टि इतनी राग भाव वाली हो गई है कि दिगम्बर संप्रदाय में बीस पंथी, तेरापंथी और कानजी आदि के झगडे चलते ही रहते हैं। एक दूसरे की मान्यताओं
मानवता के विकास से हो देवत्व, आचार्यत्व, सिद्धत्व का सृजन-विकास हो सकता है।
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