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________________ धन-संचय, परिग्रहसंचय की चिन्ता नहीं होती। अतः उनको मानसिक दुःख, चिन्ता और अशान्ति भी नहीं होती । यों बाहर से देखने वाले उनको नग्न अकिंचन देखकर अपने मोटे विचार से उनको भले ही दुःखी मान बैठे परन्तु सूक्ष्मदर्शी बुद्धिमान समझते हैं कि एकान्तवासी, नग्न, अपरिग्रही मुनि महान् सुखी हैं । नीतिकार ने कहा है चिन्तातुराणां न सुखं न निद्रा, क्षुधातुराणां न वपुर्न तेजः । __ अर्थातुराणां न सुहुन्न बन्धः, कामातुराणां न भयं न लज्जा।। चिन्तायुक्त स्त्री-पुरुषों को न तो नींद आती है और न किसी तरह का सुख होता है । चिन्ता के कारण उन्हें अशान्ति बनी रहती है । भूखे मनुष्य के शरीर में न बल रहता है, न तेज । स्वार्थी मनुष्य का न कोई मित्र होता है, न भाई आदि कोई सम्बन्धी होता है और कामातुर मनुष्य को न किसी तरह की लज्जा रहती है, न भय । इस तरह चिन्ता महान् दुःख का मूल है। चिता चिन्ता समाख्याता, बिन्दुमात्र विशेषता। चिता बहति निर्जीवं, चिन्ता किन्तु सजीवकम् ।। मृतक मनुष्य को जलाने की 'चिता' और 'चिन्ता' ये दोनों शब्द प्रायः बराबर हैं, केवल एक बिन्दी का ही दोनों में अन्तर है। परन्तु इनके अर्थ में महान् अन्तर है क्योंकि चिता तो निर्जीव मनुष्य को जलाती है किन्तु चिन्ता जीवित मनुष्य को जला देती है। जब तक लड़के पढ़ते रहते है, तब तक विद्यार्थी-अवस्था में निश्चिन्त सुखी रहते हैं। उनके माता-पिता स्वयं कष्ट सहन करके भी उनकी पढ़ाई की व्यवस्था बनाये रखते हैं। उन विद्यार्थियों को धनोपार्जन आदि की चिन्ता नहीं रहती। जब कोई विद्यार्थी नव यौवन की उमंगों में अपनी जीवन-सहचरी पाने को लालायित होकर जब अपने विवाह की तैयारों में योग देता है तभी से उसके ऊपर चिन्ता का भूत सवार हो जाता है । जब उसका विवाह हो जाता है तब कुछ दिन तो कामवासना में रात-दिन डूबा रहता है, तदनन्तर गहस्थाश्रम चलाने के लिये रुपये-पैसे तथा विविध पदार्थों के संग्रह की चिन्ता सवार हो जाती है। यदि कहीं सौभाग्य या दुर्भाग्य से कोई सन्तान हो गई तो उसका जीवन और भी विपत्ति में फंस जाता है। एक अनुभवी व्यक्ति ने विवाहित मनुष्य की स्थिति यों बताई है 'भूल गये राग रंग, भूल गये जकड़ी, तीन चीजें याद रहीं, नोन तेल लकड़ी। एक युवक ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने गुरु को यह शुभ समाचार सुनाया कि 'गुरु जी ! मेरी मंगनी हो गई है।' अनुभवी गुरु ने उसे उत्तर दिया कि 'मूर्ख ! तेरी मंगनी नहीं हुई, तेरी टंगनी हुई है।' तेरे टंगने (फंसने) का फंदा तेरे गले में आ पड़ा है। कुछ दिन पीछे उसी नवयुवक ने मुस्कराते हुए अपने गुरु को कह सुनाया कि 'गुरुजी ! मेरी शादी हो गई है।' गुरु ने इसके उत्तर में कहा कि 'मूर्ख ! तू प्रसन्न होता है, तेरी शादी नहीं हुई बल्कि तेरे जीवन की बर्बादी शुरू हो गई है। __इस तरह अशान्ति और दुःख का कारण एक तो गृहस्थाश्रम के लिये विविध परियह का संचय करना है। अशान्ति का दूसरा कारण 'अविवेक से जल्दबाजी में काम करना है। मनुष्य विवेक से खूब सोच-विचार करके जो कार्य करता है, वह कार्य ठीक होता है। उसमें दुःख नहीं मिलता, न चिन्ता का अवसर आता है। राजा भोज के समय में एक कवि ने एक श्लोक बनाया सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् । वृणुते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥ अर्थात् जल्दबाजी में कोई कार्य नहीं कर डालना चाहिये । अविवेक (कर्तव्य अकर्तव्य का ज्ञान न होना) अनेक बड़ी विपत्तियों का घर है । सोच-विचार करके कार्य करने वाले मनुष्य को अनेक सम्पत्तियां स्वयमेव प्राप्त हो जाती हैं। उस कवि को अपने इस श्लोक पर अच्छा विश्वास और अभिमान था। उसको एक बार रुपयों की आवश्यकता हई। तब वह एक धनिक सेठ के पास गया। उसने सेठ से कहा कि मुझको एक हजार रुपये की आवश्यकता है आप मुझको मेरा एक श्लोक बन्धक (गिरवी) रख कर मुझे रुपया दे दें। जब मेरे पास पास रुपये आ जावेंगे तब मैं अपना श्लोक आपको रुपये देकर वापिस ले जाऊंगा। सेठ ने श्लोक को अच्छी नीति से पूर्ण समझ कर गिरवी रखकर उस कवि को एक हजार रुपया दे दिया । सेठ ने वह श्लोक अपने शयनकक्ष में मोटे सुन्दर अक्षरों में लिखवा दिया । कुछ दिन पीछे सेठ के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। बहुत हर्ष मनाया गया और उसका लालन-पालन बड़े प्रेम से होने लगा ! जब उसका पुत्र ५ वर्ष का हो गया तब सेठ अपने घर का समस्त प्रबन्ध करके परदेश को चला गया। व्यापार करते-करते सेठ को ११-१२ वर्ष विदेश में हो गये । तब वह बहुत-सा धन कमा कर अपने घर वापिस लौटा। जब अपने नगर में पहुंचा तब रात्रि हो गई थी। सेठ दबे पैर अपने घर जा पहुंचा। घर में पहुच कर उसने देखा कि उसकी पत्नी एक युवक के साथ एक ही चारपाई पर सो रही है। सेठ ने सोचा कि 'दीर्घकाल तक परदेश में रहने के कारण सेठानी ने किसी युवक से मित्रता करली है, उसी युवक के साथ वह सो रही है। मेरी पत्नी चरित्र-भ्रष्ट हो गई है।' ऐसा सोच कर उसको अपनी पत्नी तथा उसके साथ सोते हुए उस आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211591
Book TitleBhav evam Manovikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Psychology
File Size2 MB
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