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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन योगियों की परम्परा और चिकित्सा शास्त्र दोनों में स्वीकार की जाती है । यह सुषुम्ना नाड़ी चेतना का केन्द्र है, जहाँ मस्तिष्क अनन्त ज्ञानकोषों के गुच्छक के रूप में स्वीकार किया जाता है, वहीं अनेकानेक चेतना केन्द्रों को भी सुषुम्ना नाड़ी में ( मेरुदण्ड के मध्यभाग में) चिकित्सा विज्ञान स्वीकार करता है। इस स्थिति में इन चक्रों को चेतना के विविध केन्द्रों के रूप में स्वीकार करने पर चिकित्सा विज्ञान और योग परम्परा के बीच किसी प्रकार का मतभेद नहीं रह जाता । अतः यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि चिकित्सा विज्ञानियों द्वारा मेरुदण्ड के मध्यवर्ती सुषुम्ना नाड़ी में स्वीकृत चेतना के केन्द्र ही योगि-परम्परा में स्वीकृत चक्र हैं । ये चेतना के केन्द्र अनेकानेक ऊतकों से युक्त हैं, निम्न भाग में स्थित केन्द्रों की अपेक्षा उच्च, उच्चतर और उच्चतम भागों में स्थित केन्द्र अधिकाधिक शक्तिशाली हैं । उनकी ग्रहण क्षमता एवं प्रेरक क्षमता उत्तरोत्तर अधिक है और सूक्ष्म केन्द्रों के स्वरूप और शक्ति को योगपरम्परा में विविध प्रतीकों के माध्यम से वर्णित किया गया है । अतः इन चक्रों के दल (पत्ते) और उन पर स्वीकार किये जाने वाले बीजाक्षरों को ग्रहण और प्रेरक शक्ति की सूचना देने वाले प्रतीकों के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए । स्मरणीय है कि योग की एक शाखा तन्त्र में पृथिवी आदि तत्त्वों के प्रतीक के रूप में एक-एक अक्षर बीजाक्षर के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसका विस्तृत विवरण तन्त्र शास्त्र में ही द्रष्टव्य है । योगि- परम्परा में यद्यपि चक्रों की संख्या के सम्बन्ध में कुछ मतभेद भी है तथापि निम्नलिखित चक्रों को उनके स्वरूप विवरण के साथ निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है। ये चक्र हैं - (१) मूलाधार चक्र, (२) स्वाधिष्ठान चक्र, (३) मणिपूर चक्र, (४) अनाहत चक्र या हृदय चक्र, (५) विशुद्ध चक्र या कण्ठ चक्र, (६) आज्ञा चक्र या भ्र चक्र, (७) सहस्रार चक्र या सहस्र दल कमल । इन सात चक्रों में सामान्यतः प्रथम छह को अर्थात् मूलाधार से आज्ञा चक्र तक को 'च' नामों से तथा अन्तिम सहस्रार को परमपद शिवस्थान आदि नामों से तन्त्र परम्परा में स्वीकार करते हैं, अर्थात् अन्तिम सहस्रार चक्र को चक्र न कहकर सहस्रदल कमल और शिवस्थान आदि नामों से अभिहित करते हैं। इनका विशिष्ट विवरण षट् व निरूपण ग्रन्थ में द्रष्टव्य है । इनका संक्षिप्त विवरण नीचे अंकित है जिन पर ध्यान करने से जागृत कुण्डलिनी क्रमशः ऊपर उठती है । उसके ऊर्ध्वगामी होने के साथ-साथ ये चक्र जागृत हो जाते हैं अर्थात् ये विशिष्ट चेतना केन्द्र सम्पूर्ण रूप से क्रियाशील हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप साधक को अद्भुत चेतना शक्ति प्राप्त हो जाती है । मूलाधार चक्र जैसा कि इस चक्र के नाम से भी स्पष्ट है मूलाधार चक्र समस्त चक्रों के मूल आधार में है । मूल आधार से तात्पर्य है जहाँ से सुषुम्ना नाड़ी का प्रारम्भ होता है अर्थात् योनि स्थान के निकट | यह स्थान गुदा ( मल निकलने का मार्ग) से थोड़ा ऊपर लिङ्ग के पीछे है । इस चक्र को आधार चक्र अथवा आधार कमल भी कहते हैं । यह पृथिवी का स्थान अर्थात् शरीर में स्थित भूलोक स्वीकार किया जाता I प्राणायाम मन्त्र में प्रथम अंश 'ओम् भू' का जप और अर्थ की भावना इस चक्र ( इस चेतना केन्द्र) को जागृत करने, इसको अपनी समग्र शक्तियों के साथ क्रियाशील करने के लिए ही की जाती है । इस चक्र में चार दल अर्थात् पंखुड़ियाँ मानी जाती हैं, जिनका वर्ण रक्त अर्थात् जपा (गुड़हल ) के पुष्प के रंग के सदृश है और प्रत्येक दल पर क्रमशः वँ शँ षँ सँ बीज मन्त्र अंकित है, ऐसा स्वीकार किया जाता है । बीज मन्त्रों द्वारा इस विशिष्ट चेतना केन्द्र ( मुलाधार चक्र) की विशिष्ट ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति की ओर ३१६ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग www.jainelibrary
SR No.211444
Book TitlePranshakti Kundalini evam Chakra Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhamitra Avasthi
PublisherZ_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
Publication Year1997
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size3 MB
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