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________________ साध्वीरजपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ b.in HHHETRENA होने लगता है। प्राणायाम द्वारा, ध्यान द्वारा अथवा कुण्डलिनी जागरण के लिए बताए गये अन्य उपायों द्वारा साधक सुषुम्ना के इस भाग को मुख्य भाग से जोड़ने का प्रयत्न करता है। इस साधना में, इस कार्य में, जब उसे सफलता मिल जाती है, तब वह अनन्त शक्तियों से सम्पन्न हो जाता है। इस सफलता को ही सीधी-सीधी लौकिक भाषा में कहना चाहें तो कह सकते हैं, वह ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इस स्थिति में पहुँचने पर क्योंकि उसकी सम्पूर्ण चेतना का प्रयोग होने लग गया अतः वह पूर्ण प्रकाशमय, पूर्ण ज्ञानमय हो जाता है, अविद्या की निवृत्ति हो जाती है, और क्योंकि अविद्या ही अस्मिता (अहंभाव) राग द्वेष अभिनिवेशरूपी क्लेशों का मूल है, जिनके कारण यह संसार चक्र चलता है, अतः इसकी (अविद्या की) निवृत्ति से साधक संसार चक्र सहित अस्मिता आदि क्लेशों से छूट जाता है । दूसरे शब्दों में वह मुक्त हो जाता है। इस प्राण शक्ति के अथवा कुण्डलिनी या जीव शक्ति के जागरण के कई उपाय हैं। कई प्रकार की साधना है। प्राणायाम साधनाएँ उनमें एक है । जिस प्रकार आतसी शीशे के द्वारा सूर्य के बिखरे हुए प्रकाश को एक स्थान पर केन्द्रित करके वहाँ ताप (अग्नि) उत्पन्न कर दिया जाता है, उसी प्रकार ध्यान द्वारा भी सामान्य रूप से अपने द्वारा प्रयुक्त होने वाली शक्ति को केन्द्रित करके ब्रह्मनाड़ी के मुख को उद्घाटित करते हुए प्राणशक्ति अर्थात् कुण्डलिनी को जागृत किया जा सकता है, और प्रधान चेतना शक्ति (अनन्त चेतना शक्ति) से जोड़ा जा सकता है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार लोक में प्रज्वलित गैस को भिन्न पदार्थ लोहे आदि पर डालकर उसे गरम करना, पिघलाना, जोड़ना आदि क्रियाएँ सम्पन्न कर ली जाती हैं, उसी प्रकार जिसने अपनी अनन्त चेतना शक्ति को जागृत कर लिया है, ऐसा सिद्ध गुरु अपनी शक्ति से दूसरे साधक (अधिकारी साधक) की प्राणशक्ति को मूल चेतना शक्ति, कुण्डलिनी को जागृत कर सकता है। इस क्रिया को ही योगियों की परम्परा में शक्तिपात करना कहते हैं। इस प्राणशक्ति, चेतनाशक्ति, जीवनशक्ति अथवा कुण्डलिनी आदि नामों से स्मरण की जाने वाली शक्ति को उदबुद्ध करने के अनेक मार्ग हैं, अनेक उपाय हैं, अनेक साधनाएँ हैं। साधना के क्रम में हम या कोई साधक या सिद्ध इतना ही कह सकता है कि यह मार्ग अमुक स्थान तक अवश्य जाता है, क्योंकि उस मार्ग को अथवा उसके चित्र को (यथार्थ चित्र को) उसने देखा है या समझा है। किन्तु जिस मार्ग को उसने देखा नहीं, उस पर चला नहीं, अथवा चलना प्रारम्भ करके मार्ग कठिन लगने से, मार्ग स आने से, उसे छोड़ दिया है उसके सम्बन्ध में यह कहना कि यह मार्ग अमुक स्थान पर नहीं ले जाएगा यदि अनुचित नहीं तो कठिन अवश्य है। अतः अच्छे साधक साधना के अन्य मार्गों के सम अवलम्बन करना ही उचित समझते हैं। केवल उस साधना विधि का उपदेश करते हैं, जिस विधि को उन्होंने समझ लिया है। किसी का खण्डन अथवा विरोध वे नहीं करते। __ अनन्त चेतना शक्ति के स्रोत को जागृत करने के अनेक उपायों में से किसी भी एक उपाय का ही आश्रयण साधक को करना चाहिए । हां प्राथमिक तैयारी के लिए, साधना की पृष्ठभूमि तैयार करने के MISA S १. अविद्या अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशा: पञ्चक्लेशा: अविद्याक्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्त-तनु-विच्छिन्न-उदाराणाम् । -योगसूत्र २१३-४ । ANDIRTHANABHARATTIMAHIMIRSSET HAPPY ३१४ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग Den ernational For Private & Personal use a www.jainelibrary or FOR
SR No.211444
Book TitlePranshakti Kundalini evam Chakra Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhamitra Avasthi
PublisherZ_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
Publication Year1997
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size3 MB
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