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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ___ चैतन्य यह आत्मा का व्यापक धर्म होने से ज्ञान स्वभावी आत्मा का परिणमन चैतन्य रूपसे ही होता है । वह चेतना परिणति ज्ञान, कर्म और कर्मफल रूपसे तीन प्रकार होती है। ज्ञान स्वभाव से होनेवाला परिणमन ' ज्ञानचेतना' है, कर्तृत्व रूपसे वेदन 'कर्मचेतना' है और भोक्तृत्व रूपसे वेदन 'कर्मफलचेतना' है । यथार्थ में अन्य द्रव्य की विवक्षा न होने से वे तीनों चेतनाएँ आत्मरूप ही है। इस प्रकार ज्ञेयरूप आत्माके शुद्ध स्वरूप के निश्चय से आत्मा के ज्ञान स्वभाव की सिद्धि होती है और शुद्धात्म लाभ भी होता है । आत्मा संसाररूप या स्वभाव परिणमनरूप स्वयं अपने आप परिणत होता है इसलिए वह स्वयं कर्ता है। स्वयं ही तीनों प्रकारकी परिणतियों में साधकतम करण है, वह स्वयं का ही परिणाम होने से स्वयं ही कर्म है और आकुलतारूप सुखदुःखरूप या अतीन्द्रिय अनाकुल सुखरूप स्वयं ही होने से वह स्वयं कर्मफल है। इस प्रकार एकत्व भावना से परिणत आत्मा को परपरिणति नहीं होती, परद्रव्य से असंपृक्त होने से विशुद्ध होकर पर्यायमूढ न होता हुआ वह स्वयं सुविशुद्ध होता है । यहाँ तक ५३ गाथाओं में ज्ञेयत्वका सामान्य और विशेष वर्णन होता है । एक आत्मद्रव्य ज्ञानरूप है और आत्मासहित द्रव्यमात्र ज्ञेय है। संसार में भी प्राणोंके द्वारा आत्म ' द्रव्य' अचेतन द्रव्यों से पृथक पहिचाना जाता है । इन्द्रिय, बल, आयु और आणप्राण इन चार प्राणोंसे पूर्व में जिया है, जिता है और जियेगा इसलिए यद्यपि वह जीव कहलाता पर वे प्राण पुद्गलकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने के कारण तथा पौद्गलिक कर्म का हेतु होने से वे चारों ही प्राण पौगलिक है । इन प्राणोंद्वारा जीव कर्मफल भोगता हुआ रागीद्वेषी होकर स्वपर के द्रव्यभावरूप प्राणों का व्याघात करके कर्मबंध करता है । इस पुद्गलमय प्राणों की संतति का अंतरंगहेतु पुद्गलकर्मोदय निमित्तक रागादिक तथा शरीरादिकों में ममत्व है। जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके अपने उपयोग स्वरूपी आत्मा में लीन होता है उसके प्राण संतति का उच्छेद होना है। ___ नरनारकादि गतिविशेषों से भी व्यवहार से जीव जानने में आता है। गतियों में अन्य द्रव्य का संयोग होने पर भी आत्मा अपने चेतनस्वरूप द्रव्यगुण पर्याय के द्वारा जडरूप द्रव्यगुण पर्यायों से अलग ही है । ऐसा स्वपर भेद विज्ञान आवश्यक है । पर द्रव्यसंयोग का कारण शुभाशुभ सोपराग (विकाररंजित) उपयोग-विशेष है । उपयोग शुभ है तो पुण्यप्राप्ति होती है और अशुभ है तो पापसंचय होता है। उपयोग सोपराग न होने पर आत्मा शुद्ध कहलाता है; वह परद्रव्य संयोग का अहेतु है । अरहन्त सिद्धसाधुओं की भक्ति, जीवों की अनुकम्पा यह शुभोपयोग है तथा विषय कषायों में मग्नता, कुविचार, दुश्रुति तथा कुसंगति उग्र कषाय के कारण आदि अशुभोपयोग है। और ज्ञानस्वरूप आत्मा में लीनता या तन्मयता शुद्धोपयोग है । शरीर वचन मन ये सब पौद्गलिक होने से परद्रव्य है । आत्मा उन परद्रव्यों का न कर्ता है न कारयिता है। उन मनवचनकायरूप पुद्गल पिण्डों की रचना या बन्ध पुद्गल के ही स्निग्धत्व और रुक्षत्व के कारण होनेवाली बन्ध पद्धति से होती है। उस पुद्गल-पुद्गल के बन्ध का विस्तार से वर्णन आया है। सब पृथ्वी जलादि द्वयण्युकादि स्कंध अपने अपने परिणामों से होते है। आत्मा उन पुद्गल पिण्डों का न कर्ता है न नेता है । कर्मरूप पुद्गल पिण्डों का भी आत्मा कर्ता नहीं है, शरीर का भी नहीं है। आत्मा औदारिकादि शरीररूप भी नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211394
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar G Bhore
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size1 MB
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