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________________ ६२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ सहित है, असतोदय से खण्डित है, बंध का कारण है और विषम होने से वास्तव में दुःख ही है। इसलिए तत्त्व दृष्टि पुण्य पाप में भेद नही करती। ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्य पावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंच्छण्णो ॥ ७७ ॥ जो पुण्य-पाप में संसार कारणरूप से समानता स्वीकृत नहीं करता वह अभिप्राय में कषाय को उपादेय माननेवाला मिथ्यादृष्टि होने से अनन्त संसार का ही पात्र है। तत्त्व को यथार्थ जानकर परद्रव्य में रागद्वेष न करता हुआ जो शुद्धोपयोग की भूमिका प्राप्त करता है वही देहजन्य दुःख नष्ट करता है। यदि पाप से परावृत्त होकर भी शुभ में मग्न होता है और मोहादिकों को छोडता नहीं है तो वह भी दुःख नष्ट करके अपने शुद्धात्मा को नहीं पा सकता। अतः मोह का नाश करने के लिए प्रत्येक मुमुक्षु जीव को बद्धपरिकर होना चाहिए। उस मोह राजा के सेना को जीतने का उपाय कौनसा हो सकता है यह एक गंभीर प्रश्न है। उसके लिए अरिहन्त परमात्मा उदाहरणस्वरूप है । उनका आत्मा शुद्ध सुवर्ण की तरह अत्यन्त शुद्ध है । उनके द्रव्यगुणपर्याय द्वारा यथायोग्य ज्ञान से आत्मा के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है । प्रत्येक जीव का आत्मा और गुण द्रव्य दृष्टि से (शक्ति अपेक्षा से) अरहन्त के समान ही है, पर्याय में अन्तर है। शुद्धदशा प्राप्त आत्मा अशुद्ध भूमिकापन्न जीवों के लिए साध्य है। शुद्ध ज्ञायक स्वभाव के आश्रय से पर्याय भेद और गुणभेद की वासना को द्रव्य में अतर्मग्न करके शुद्धोपयोग द्वारा ही मोहकषाय की सेना जीती जा सकती है। वही हमारे लिए मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग में व्यवहार की जो प्रतिष्ठा है वह इसही प्रकार है। आत्मस्वरूप का ज्ञान कराने के लिए अरिहन्तादि के स्वरूप का ज्ञान कारण है. इतना ही देवशास्त्रगुरु का प्रयोजन है । मोक्ष की प्राप्ति तो स्वयं पुरुषार्थ द्वारा शुद्धोपयोग का राजमार्ग सही-सही स्वीकारने से ही होगी। शुद्धात्मरूप चिंतामणी रत्न की रक्षा के लिए रागद्वेषरूपी डाकुओं से नित्य सावधान रहना जरुरी है । शुद्धात्म स्वभाव से च्युत करने वाले मोह का स्वभाव और उसकी रागद्वेष मोहमयी त्रितयी भूमिका को जानकर उनसे बचना कार्यकारी है । रागद्वेष मोह से परिणत जीव ही कर्मबन्ध के चक्कर में आते है । पदार्थ के स्वरूप का अयथार्थ ग्रहण, विशेषतः तिर्यंच मनुष्यों में जायमान करुणाबुद्धि (एक जीव दुसरे को बचा सकता है ऐसी भावना बाह्यतः दयारूप दिखती है परन्तु उसमें पर के कर्तृत्व का व्यामोहरूप अंधकार से व्याप्त है । ) इष्ट विषयों की प्रीति जो रागरूप है तथा अनिष्ट विषयों की अप्रीति जो द्वेषरूप है ये मोह के चिन्ह है जानकर तीन भूमिका स्वरूप मोह का नाश करना चाहिए। अरहन्त के स्वरूप समझने के साथ जिनशास्त्र का अध्ययन यह भी मोहक्षय का कारण है। जिनशास्त्र में निर्दिष्ट वस्तु व्यवस्था को जानकर प्रत्येक वस्तु की स्वतंत्रता का बोध करने से ही पर-संबंधी राग द्वेष दूर होते हैं और मोह क्षीण होता है । आगमाभ्यास से स्वपर का भेद विज्ञान और स्वपर भेद विज्ञान से वीतराग भावों की वृद्धि होती है। यथार्थतः वीतराग चारित्र में स्थित आत्मा ही साक्षात धर्म है । दूसरा श्रुतस्कंध ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन है। उसमें प्रथम २२ गाथाओं में पदार्थ के द्रव्य गुण पर्याय स्वरूप का अपूर्व वर्णन है, जो प्रतीति कराने वाला, तलस्पर्शी और अत्यंत मार्मिक है। यह आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211394
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar G Bhore
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size1 MB
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