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________________ ६८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ सहकारी होने से अप्रतिसिद्ध ऐसे शरीरमात्र उपाधि की संयम ध्यानादि साधना के लिए ही युक्ताहार-विहार द्वारा रक्षा करता है । युक्ताहार का आशय योग्य आहार या योगी का आहार है । आत्मा स्वयं अनशन स्वभावी (या अविहार स्वभावी होने से ) तथा एषणादि दोषरहित आहार ग्रहण करने से ( समितिपूर्वक विहार करने से ) युक्ताहारी श्रमण अंनाहारी ही कहा जायगा । १ एकही समय लिया गया, २ अपूर्णोदर, ३ यथाप्राप्त, ४ भिक्षावृत्ति से प्राप्त, ५ दिनको लिया हुआ ६, नीरस और मधुमांसरहित आहार ही युक्ताहार है, इससे विपरीत लिया हुआ आहार हिंसा आदि दोषों का कारण होने से अयुक्ताहार ही कहा गया है । बाल, वृद्ध, श्रान्त और रुग्ण साधु को भी जिस तरह संयम का मूलभूत छेद न हो इस तरह कठोर आचरण उत्सर्ग मार्ग है तथा मूलतः छेद न हो इस प्रकार अपनी उपरोक्त चारों भूमिका योग्य मृदु आचरण करना अपवाद मार्ग है । साधुको उत्सर्ग और अपवाद की मैत्रीपूर्वक संयम भी पले और शुद्धात्मसिद्धि के लिए शरीर प्रतिबंधक न हो इस प्रकार अपवाद-सापेक्ष उत्सर्गमार्ग या उत्सर्ग-सापेक्ष अपवादमार्ग का स्वीकार करना चाहिए । तात्पर्य साधुओं की चर्या जिस तरह शुद्ध आत्मा की साधना हो ऐसी आगमानुकूल होनी चाहिए। साम्य या सामायिक ही श्रामण्यका लक्षण है, वही दर्शनज्ञान चारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्ग है । जिस जीव को स्वपर का निर्णय है वही अपने आत्मा में एकाग्रता कर पाता है । स्वपर पदार्थ का निर्णय इन्द्रिय विषयों में आसक्त जीव को आगम ज्ञान के विना असंभव होने से आगम के ज्ञानाध्ययन की प्रवृत्ति प्रयत्नपूर्वक कुशलता से करनी मुमुक्षु को जीवनसाधना के हेतु अपरिहार्य है । इसलिए चाहे साधु हो या गृहस्थ हो दोनों के जीवनी में आगमाभ्यास की महत्ता विशेष है । आगम चक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्व भूदाणि । देवाय ओहि चक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू || प्रवच० ॥ आशय यह है कि सर्वसाधारण प्राणियों के लिए इन्द्रिय ही नेत्र होता है, देव अवधिज्ञान-नत्रवा होते हैं, साधु के लिए आगम ही नेत्र होता है, सिद्ध परमात्मा सर्वदर्शी होने से वे सर्वत: चक्षु होते हैं । आगमज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन होता है, आगमज्ञान तथा तत्त्वार्थ श्रद्धानपूर्वक संयम की युगपत् प्रवृत्ति मोक्षमार्ग है, जहां तीनों की एकता विद्यमान नहीं वहा मोक्षमार्ग संभव नहीं है । आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और चरण की एकाग्रता यदि आत्मज्ञानपूर्वक है तो कार्यकारी है । Jain Education International जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवलय - सहस्स - कोडी हिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेहि उस्सास - मेत्तेण ॥ २३८ ॥ सारसंक्षेप यह है कि आत्मा को न जाननेवाला अज्ञानी शतसहस्र कोटी भवों में जो कर्मों का क्षय करता है उतना कर्मक्षय आत्मज्ञानी साधु क्षणमात्र में करता है । इसलिए आत्मज्ञान ही मोक्षमार्ग में कर्णधार एवं तीन गुप्तिसहित होने से प्रधान है। सच्चे साधुके लिए आगमज्ञानादि तीनों की एकाग्रता के साथ आत्मज्ञान का यौगपद्य अवश्यंभावी है और उस ही जीव का चारित्र व्रततपादि सफल है । ऐसा श्रमण स्वभाव से ही शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, निंदा - प्रशंसा, लोहकंचन, जन्म-मरण सर्वत्र समदृष्टि होता है । जिसे यह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211394
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar G Bhore
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size1 MB
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