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यतीन्द्रसूरि रमाकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - है नियुक्तियों के कर्ता भी हैं, तो फिर नियुक्तियों में आर्यरक्षित द्वारा प्रशिष्य एवं आर्यकालक-के शिष्य हैं तथा इनके शिष्य के रूप में निर्यापन करवाने के बाद किये गये कार्यों का उल्लेख नहीं होना था। आर्यवृद्ध का उल्लेख है। यदि हम आर्यवृद्ध को वृद्धवादी मानते हैं, किन्तु ऐसा उल्लेख है, अत: नियुक्तियाँ काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की तो ऐसी स्थिति में ये आर्यभद्र, सिद्धसेन के दादा-गुरु सिद्ध होते कृति नहीं हो सकती हैं।
है। यहाँ हमें यह देखना होगा कि क्या ये आर्यभद्र भी स्पष्ट संघभेद २. दूसरी एक कठिनाई यह भी है कि कल्पसूत्र स्थविरावली अर्थात् श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर सम्प्रदायों के नामकरण के के अनुसार आर्यरक्षित आर्यवज्र से ८ वीं पीढ़ी में आते हैं। अत: पूर्व हुए हैं? यह सुनिश्चित है कि सम्प्रदाय-भेद के पश्चात् का कोई यह कैसे सम्भव हो सकता है कि ८ वीं पीढ़ी में होने वाला व्यक्ति भी आचार्य नियुक्ति का कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि नियुक्तियाँ यापनीय अपने से आठ पीढ़ी पूर्व के आर्यवज्र से पूर्वो का अध्ययन करे। इससे और श्वेताम्बर दोनों में मान्य हैं। यदि वे एक सम्प्रदाय की कृति होती कल्पसूत्र-स्थविरावली में दिये गये क्रम में संदेह होता है, हालाँकि तो दूसरा सम्प्रदाय उसे मान्य नहीं करता। यदि हम आर्य विष्णु को कल्पसूत्र-स्थविरावली एवं अन्य स्रोतों से इतना तो निश्चित होता है दिगम्बर पट्टावली में उल्लिखित आर्यविष्णु समझें तो इनकी निकटता कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्व में हुए हैं। उसके अनुसार आर्यरक्षित अचेल-परम्परा से देखी जा सकती है। दूसरे विदिशा के अभिलेख आर्यभद्रगुप्त के प्रशिष्य सिद्ध होते हैं। यद्यपि कथानकों में आर्यरक्षित में जिस भद्रान्वय एवं आर्य-कुल का उल्लेख है उसका सम्बन्ध इन को तोषलिपुत्र का शिष्य कहा गया है। हो सकता है कि तोषलिपुत्र । गौतमगोत्रीय आर्यभद्र से भी माना जा सकता है, क्योंकि इनका काल आर्यभद्रगुप्त के शिष्य रहे हों। स्थविरावली के अनुसार आर्यभद्र के भी स्पष्ट सम्प्रदाय-भेद एवं उस अभिलेख के पूर्व है। दुर्भाग्य से इनके शिष्य आर्यनक्षत्र और उनके शिष्य आर्यरक्षित थे। चाहे कल्पसूत्र की। सन्दर्भ में आगमिक व्याख्या-साहित्य में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता, स्थविरावली में कुछ अस्पष्टताएँ हों और दो आचार्यों की परम्परा को । केवल नाम-साम्य के आधार पर हम इनके नियुक्तिकार होने की सम्भावना कहीं एक साथ मिला दिया गया हो, फिर भी इतना तो निश्चित है व्यक्त कर सकते हैं। कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्ववर्ती या ज्येष्ठ समकालिक हैं। ऐसी इनकी विद्वत्ता एवं योग्यता के सम्बन्ध में भी आगमिक उल्लेखों स्थिति में यदि नियुक्तियाँ आर्यभद्रगुप्त के समाधिमरण के पश्चात् की का अभाव है, किन्तु वृद्धवादी जैसे शिष्य और सिद्धसेन जैसे प्रशिष्य आर्यरक्षित के जीवन की घटनाओं का विवरण देती हैं, तो उन्हें शिवभूति के गुरु विद्वान् होंगे, इसमें शंका नहीं की जा सकती। साथ ही इनके के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त की कृति नहीं माना जा सकता। प्रशिष्य सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख दिगम्बर और यापनीय आचार्य
यदि हम आर्यभद्र को ही नियुक्ति के कर्ता के रूप में स्वीकार भी करते हैं, अत: इनकी कृतियों को उत्तर भारत की अचेल-परम्परा करना चाहते हैं तो इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है कि हम में मान्यता मिली हो, ऐसा माना जा सकता है। ये आर्यरक्षित से पाँचवीं आर्यरक्षित, अन्तिम निह्नव एवं बोटिकों का उल्लेख करने वाली पीढ़ी में माने गये हैं। अत: इनका काल इनके सौ-डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् नियुक्ति-गाथाओं को प्रक्षिप्त मानें। यदि आर्यरक्षित आर्यभद्रगुप्त के ही होगा अर्थात् ये भी विक्रम की तीसरी सदी के उत्तरार्द्ध या चौथी निर्यापक हैं तो ऐसी स्थिति में आर्यभद्र का स्वर्गवास वीर के पूर्वार्द्ध में कभी हुए होगें। लगभग यही काल माथुरीवाचना का निर्वाण सं. ५६० के आस-पास मानना होगा, क्योंकि प्रथम तो भी है। चूँकि माथुरीवाचना यापनीयों को भी स्वीकृत रही है, इसलिए आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना अपने युवावस्था में ही इन कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र को नियुक्तियों का कर्ता करवायी थी और दूसरे तब वीर निर्वाण सं. ५८४ (विक्रम की द्वितीय मानने में काल एवं परम्परा की दृष्टि से कठिनाई नहीं है। शताब्दी) में स्वर्गवासी होने वाले आर्यवज्र जीवित थे। अत: नियुक्तियों यापनीय और श्वेताम्बर दोनों में नियुक्तियों की मान्यता के होने में अन्तिम निह्रव का कथन भी सम्भव नहीं लगता, क्योंकि अबद्धिक के प्रश्न पर भी इससे कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि ये आर्यभद्र नामक सातवाँ निहव वीरनिर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात् हुआ है। अतः आर्य नक्षत्र एवं आर्य विष्णु की ही परम्परा के शिष्य हैं। सम्भव है हमें न केवल आर्यरक्षित सम्बन्धी अपितु अन्तिम निह्रव एवं बोटिकों कि दिगम्बर-परम्परा में आर्यनक्षत्र और आर्यविष्णु की परम्परा में हुए सम्बन्धी विवरण भी नियुक्तियों में प्रक्षिप्त मानना होगा। यदि हम यह जिन 'भद्रबाहु' के दक्षिण में जाने के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे अचेलस्वीकार करने को सहमत नहीं हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा धारा में भद्रान्वय और आर्यकुल का आविर्भाव माना जाता है, वे ये कि काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त भी नियुक्तियों के कर्ता नहीं हो सकते ही आर्यभद्र हों। यदि हम इन्हें नियुक्तियों का कर्ता मानते हैं, तो इससे हैं। अत: हमें अन्य किसी भद्र नामक आचार्य की खोज करनी नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख है वे भी युक्तिसंगत
बन जाते हैं।
अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नियुक्तियों के कर्ता क्या गौतमगोत्रीय आर्यभद्र नियुक्तियों के कर्ता हैं?
आर्य नक्षत्र की परम्परा में हुए आर्य विष्णु के प्रशिष्य एवं आर्य संपालित काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त के पश्चात् कल्पसूत्र-पट्टावली में हमें के गुरु-भ्राता गौतमगोत्रीय आर्यभद्र ही है। यद्यपि मैं अपने इस निष्कर्ष गौतमगोत्रीय आर्यकालक के शिष्य और आर्य संपालित के गुरुभाई को अन्तिम तो नहीं कहता, किन्तु इतना अवश्य कहूँगा कि इन आर्यभद्र आर्यभद्र का भी उल्लेख मिलता है। यह आर्यभद्र आर्यविष्णु के को नियुक्ति का कर्ता स्वीकार करने पर हम उन अनेक विप्रतिपत्तियों
होगी।
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