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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ प्रभु की मूर्ति के दर्शन-पूजन से संसारी आत्मा की पापवासना मन्द होती है और विषयकषाय का वेग कम होता है। उनके पूजन से सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की श्रद्धा स्थिर रहती है तथा चित्त को शांति मिलती है। शारीरिक रोगादि कारणों से प्रभु की पूजा न हो सके तो भी भावना प्रभु- पूजा की रहती है। ऐसी परिस्थिति में कभी मृत्यु भी हो जाए तो भी आत्मा की शुभ गति होती है।
वीतराग प्रभु श्री जिनेश्वरदेव की भव्य मूर्ति के दर्शनपूजन के समय विषय-विकार आदि को त्यागना होगा है, अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है, यह भी शीलधर्म का एक प्रकार है। मूर्ति के दर्शन-पूजन के समय अन्न-पान - खाद्य-स्वाद्य आदि चारों प्रकार के आहार का त्याग करना होता है, अतः यह भी एक प्रकार का तप है। दर्शन-पूजन के समय वीतराग प्रभु की स्तुतिस्तवन आदि द्वारा गुणगान करने से भावना की शुद्धि होती है।
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मूर्ति और मंदिर के निर्माण में भारतीय शिल्पकला को अत्यन्त ही पोषण मिला है और आज भी मिल रहा है। मन्दिरनिर्माण में लगाया हुआ धन धर्मदृष्टि से आत्मा को परमात्मा की ओर ले जाता है और व्यवहार दृष्टि से शिल्पकला के रूप में आपके शुभ्र यश को विश्व में स्थायित्व प्रदान करता है ।
जिनदर्शन एवं पूजन के समय वीतराग श्री अरिहन्त परमात्मा तथा श्री सिद्ध भगवान के गुणों का स्मरण करने से क्रमशः दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीय कर्मों का क्षय होता है। जीवदया
शुभ भावना से वेदनीय कर्म का क्षय होता है, शुभ अध्यवसाय की तीव्रता से आयुष्य-कर्म का क्षय होता है, नामस्मरण से नामकर्म का क्षय होता है, वंदन-पूजन से गोत्र-कर्म का क्षय होता है, भावपूर्वक दर्शन करने से दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होता है, तन-मन-धन की शक्ति और समय का सदुपयोग करने से अन्तराय - कर्म का क्षय होता है। इस प्रकार जिनदर्शन एवं जिनपूजन आठों कर्मों के क्षय करने का एक श्रेष्ठतम और सरलतम अनुपम साधन है। इसको अपनाने से पुण्य का बंध, आंशिक या सर्व कर्म की निर्जरा तथा अन्त में आत्मा को शाश्वत सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति पर्यन्त समस्त कार्य एक साथ सिद्ध होते हैं।
जैसे संसार में विद्याध्ययन के लिए विद्यालय, चिकित्सा के लिए चिकित्सालय तथा ज्ञानार्जन के लिए पुस्तकालय की आवश्यकता है, वैसे ही जिनेश्वरदेव के वंदन पूजन-दर्शन-के लिए जिनालयों की भी अत्यंत आवश्यकता है। आत्मा के
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जैन आगम एवं साहित्य
आत्मकल्याण के कार्य में जिनमंदिर, जैन उपाश्रय, जैन तीर्थस्थल देवालय इत्यादि श्रेष्ठ साधन हैं।
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श्री जिनमंदिर संसार के त्रिविध ताप आधि-व्याधि, उपाधि से संतप्त आत्माओं के लिए विश्रामालय या आश्रयस्थान हैं।
आचार्य भगवन्त श्रीमहरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने कहा
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चैत्यवन्दनतः सम्यक् शुभो भावः प्रजायते । तस्मात् कर्मक्षयः सर्वस्तत् कल्याणमश्नुते ॥
चैत्य अर्थात् जिनमूर्ति की सम्यक् प्रकार से वंदना करने प्रकृष्ट शुभ भाव पैदा होते हैं। शुभ भावों से समस्त कर्मों का क्षय होता है, पश्चात् पूर्ण कल्याण की प्राप्ति होती है। "अर्हतां प्रतिमाः प्रशस्तसमाधिचित्तोत्पादकत्वात् चैतन्यानि भण्यन्ते।”
चित्त अर्थात् अन्तःकरण का भाव या अन्त:करण की क्रिया, उसका नाम चैत्य है। श्री अरिहन्तों की मूर्ति प्रतिमाएँ अन्तःकरण की प्रशस्त समाधि को उत्पन्न करने वाली होने से चैत्य कहलाती हैं।
मूर्तिपूजा के शास्त्र - सम्मत होने के कई प्रमाण उपलब्ध हैं। श्री उववाई सूत्र में 'बहवे महंत चेइयाई' पाठ आता है। वहाँ पर भी बहुत सी अरिहन्त भन की मूर्तियाँ और मंदिर ऐसा अर्थ किया गया है। व्यवहार सूत्र की चूलिका में श्री भद्रबाहु स्वामीजी ने 'द्रव्यलिंगी चैत्य स्थापना करने लग जाएंगे' ऐसा कहा है। वहाँ पर भी मूर्ति की स्थापना करने लग जाएंगे ऐसा अर्थ किया गया है। श्री आवश्यक सूत्र के पाँचवें कायोत्सर्ग नामक अध्ययन में 'अरिहंत चेइयाणं' शब्द का अर्थ जिनप्रतिमा किया है। भगवती सूत्र में निम्न पाठ है
" नन्नत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइयाणि वा भावी अप्पणो अणगारस्स वाणिस्साव उङ्कं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो । "
असुरकुमार देव सौधर्म देवलोक में जाने तक तीन की शरण लेते हैं- अरिहंत भगवान की, चैत्य यानी जिन प्रतिमा की और साधु की।
जिनमूर्ति क्या-क्या करती है? इसका वर्णन एक भक्त अपनी प्रार्थना में करता है, हे प्रभो! आपकी मूर्ति मोह रूपी दावानल को शान्त करने के लिए मेघवृष्टि के समान है। आपकी
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