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________________ । ११७ ] मेंधा पर आधार रखकर मुक्ति-मार्ग में प्रवास करता विश्व के विभु एवं प्रभु हैं। अतः ऐसे प्रभु को समर्पित होने है तो वह परमार्थ के बदले अनर्थ, धर्म के बदले में ही हमारा सर्वोदय है । इसलिये ऐसा शुद्ध आशय बनाकर बदले अधर्म, पुण्य के बदले पाप, उपकार के बदले अपकार, जो प्रभु का स्मरण करता है एवं उनको आज्ञा का पालन हित के बदले अहित, शुभ के बदले अशुभ और शुद्ध के करता है, वह परमानन्द पद को सुलभता से प्राप्त करता है बदले अशुद्ध आचरण करके पराभव स्थिति को प्राप्त कर क्योंकि वे आगे फरमाते हैं कि-- अपना अध: पतन किये बिना रहेगा नहीं। "शुभाशय थिर प्रभु उपयोगे, जो-समरे तुज नामजी । ___ जैसे निष्णात डाक्टर से संपर्क साधने के बाद अपने अव्याबाध अनन्तु पामे, परम अमृत सुखधामजी ॥" दिमागो दवाओं के झगड़े में पड़ना महामर्खता है तथा ऐसे ही भाव श्री सविधिनाथ भगवान के स्तवन में निष्णात डाक्टर के ऊपर निर्भर रहने में ही साध्य की सिद्धि मिलते हैं । है, उसो तरह पहले हमें प्रभु को प्रभुना को खूब समझना ___"प्रभु मुद्रा ने योग प्रभु प्रभुता लखे हो लाल चाहिये तभी समर्पण-भाव आयेगा और आशय को शुद्धि के द्रव्य तणे साधर्म्य स्वसंपति ओलखे हो लाल" लिये आतुरता विकसित होती जायगी और वह अपनी आगे जाते-जाते श्री महावीर स्वामी के स्तवन में तो आदर्श-भावना को सफल बना सकेगा। केवल आत्मज्ञान यहाँ तक कहते हैं किको अपनो मति-कल्पना को मान्यताय मानने ओर मनाने में 'तारजो बापजी विरुद निज राखवा, अपना ही नहीं, लेकिन अनेकों के उत्थान के बदले पतन में दास नों सेवना रखे जोसो" अपने शुष्क ज्ञान को उपकरण बनाने के बदले अधिकरण बनाने के समान है। इसलिये परम-पूज्य महात्मा श्रीमद् इस तरह से मझे तो इन तीन बातों पर श्री देवचन्द्र जो ___ के प्रति अपनो अत्मा में इतना सद्भाव है कि जिसके वर्णन का अपने स्तवनों में प्रशंसनीय प्रयत्न किया है। के लिये मेरे पास कोई शब्द नहीं है। श्रीशोतलनाथ प्रभु के स्तवन में आप फरमाते हैं कि - वेसे भी इनके रचना ग्रन्यों में नय, निक्षेप प्रमाण, "शीतल जोन प्रति प्रभुता प्रभु को, लक्षण, मार्गणा स्थान, गुणस्थान, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव, मुझ थको कहो न जावेजो" पंच समवाय, औदायिक आदि पंच भाव, पंचाश्रव, पट क्योंकि सारा विश्व-विधान आपको आज्ञा के अधोन। द्रव्य, सप्त धर्म-क्षेत्र, अष्ट कर्म, अष्ट करण, नो तत्व, नौ पद हो गया है। आदि गहन विषयों का भी इतना सुन्दर और सरल ढंग से "द्रव्य, क्षेत्र ने काल, भाव, गुण, प्रतिपादन है कि सामान्य बुद्धिवाला भी अपना आत्मोत्थान राजनोति ए चार जी साध सकता है। संस्कृत, प्राकृत के प्रौढ़ विद्वान होते हुए त्रास बिना जड़ चेतन प्रभु को, भी आपने सारे आगमों का अमृत-रस राजस्थानी, गुजकोई न लोपे कारजो" राती, हिन्दो, व्रज भाषा में गद्य-पद्य में अपना साहित्य अर्थात् जड़ चेतन रूप षट् द्रव्य के द्वारा सारे विश्व- सर्जन करके बड़ा लोकोपयोगी बनाया जिसके लिये उनका तन्त्र का संचालन हो रहा है; ये सब आपको आज्ञा का जितना भी गुण गान गाया जावे, उसता ही थोड़ा है । लोप नहीं करते। मेरे कहने का आशय यह है कि आप ही वे बड़े आगम व्यवहारी, सच्चे अध्यात्म-मुख थे और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211176
Book TitleDevchandraji ke Sahitya me se Sudhabindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhdasji Swami
PublisherZ_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf
Publication Year1971
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size653 KB
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